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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : 48 प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनंद हुआ। तेरा प्रश्नः 'दो दिन पूर्व हॉस्पिटल गया था, चूंकि मेरा एक मित्र 'कैंसर' के रोग से व्याकुल है। उसको देखा, साथ ही साथ हॉस्पिटल में अनेक छोटे-बड़े रोगी देखें... मरने के लिए जीते हुए रोगियों को देखें... मन भर आया... हॉस्पिटल से बाहर आया... मन में प्रश्न उठाः रोगों का मूल कारण क्या होगा? भिन्नभिन्न रोगों के कारण क्या भिन्न-भिन्न होंगे? कुछ लोग रोगमुक्त बन पाते हैं... कुछ लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं...ऐसा क्यों होता है?' चेतन, कारण के बिना कार्य नहीं होता है। रोगों का मूल कारण होता है जीव का स्वयं का बाँधा हुआ 'अशातावेदनीय कर्म'। वेदनीय कर्म' के दो प्रकार होते हैं: एक शातावेदनीय, दूसरा अशातावेदनीय। हर जीव के दो वेदनीय कर्म में से एक तो उदय में होता ही है। कभी शातावेदनीय तो कभी अशातावेदनीय दुःख का अनुभव कराता है। शातावेदनीय कर्म के उदय से शरीर निरोगी रहता है, अशातावेदनीय कर्म के उदय से शरीर में रोग पैदा होते हैं, शारीरिक पीड़ायें पैदा होती हैं। शाता-अशाता के अनुभव समझाने के लिए कहा गया है: 'मधुलेहनसन्निभं सातवेदनीयं, खड्गधाराच्छेदनसममसातवेदनीयम्' तलवार की धार पर शहद लगाया गया हो, कोई व्यक्ति अपनी जीभ से शहद चाटता है... उसको जो सुखानुभव होता है, वैसा शातावेदनीय का अनुभव होता है और शहद चाटते चाटते तलवार की धार से जीभ कट जाती है... उससे जो दुःखानुभव होता है, वैसा अशातावेदनीय का अनुभव होता है। चेतन, आज मैं 'अशातावेदनीय' कर्म की बात लिखता हूँ, चूंकि तेरे प्रश्न का समाधान उस कर्म में समाहित है। अशातावेदनीय कर्म का विषय और दुःखद प्रभाव तूने हॉस्पिटल में प्रत्यक्ष देखा है, परंतु उस कर्म का बंधन जीवात्मा कैसे करता है... वह समझना भी बहुत आवश्यक है। और कर्मबंधन के कारण तुझे मैं ६४ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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