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पन्न :
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प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला।
तू और तेरे मित्र, इस पत्रमाला को पढ़ते हो, उस पर चर्चा करते हो... चिंतन-मनन करते हो, और आनंदित होते हो, जानकर मेरा मन प्रसन्न हुआ।
तेरा नया प्रश्न : 'एक जीव निर्बल और एक जीव बलवान, एक जीव शक्तिहीन और एक जीव शक्ति से भरपूर... एक मनुष्य उल्लास और उमंग से भरा-पूरा होता है... एक मनुष्य सदैव 'मूड लेस' निराश और हतोत्साह क्यों होता है?'
चेतन, इसका कारण है 'वीर्यांतराय कर्म'। वीर्य यानी शक्ति, वीर्य यानी सामर्थ्य, वीर्य यानी बल । जो कर्म इस शक्ति को, सामर्थ्य को, बल को बढ़ने नहीं देता है, वह है वीर्यांतराय कर्म | आत्मा की स्वयं की शक्ति तो अनंत-अपार है परंतु यह कर्म उस को दबाकर बैठा है।
जिस जीवात्मा पर इस कर्म का दबाव ज्यादा होता है वह ज्यादा निर्बल, अशक्त और सामर्थ्यहीन होता है। ज्यों-ज्यों दबाव घटता जाता है, त्यों-त्यों बलशक्ति-सामर्थ्य बढ़ते जाते हैं।
जिस मनुष्य पर इस कर्म का प्रभाव गहरा होता है वह 'मुड लेस' रहता है, कोई कार्य करने में उत्साह-उमंग नहीं होती है। जिस मनुष्य पर इस वीर्यांतराय कर्म का प्रभाव कम होता है, वह हमेशा 'मूड' में रहता है। हर कार्य में उत्साह होता है, उमंग होती है।
चेतन, जो लोग इस बात को नहीं जानते हैं, वे कितने अशांत और संतप्त होते हैं, उसके कुछ उदाहरण देता हूँ।
एक शहर में, दोपहर के समय तीन व्यक्ति मेरे पास आए | पति, पत्नी और लड़का | लड़का होगा प्रायः २४/२५ साल की उम्र का । उन्होंने वंदना की और विनय से मेरे सामने बैठे । पुरुष ने पुराना परिचय निकाला और बात शुरू की। 'महाराजश्री, यह हमारा लड़का है। B.Com. पास है। परंतु क्या पता,
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