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‘अभी मेरा भाई आया था, उसको चाय पिला दी है।' बस, पत्नी का इतना बोलना था और पति ने कप का घाव कर दिया पत्नी के मुँह पर से खून बहने लगा । पति गालियाँ बकने लगा...। वातावरण अत्यंत गंभीर हो गया । आसपास रहनेवाले लोग आ गए। स्त्री के मुँह पर दवाई लगा दी, पट्टी बाँध दी...।
गृहस्थ के जीवन में ऐसी घटनाएँ बनती रहती हैं। चूँकि ज्यादातर लोगों को कर्म-तत्त्व का ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान होता है, परंतु भान नहीं होता है तो भी झगड़े होते हैं। खाने-पीने में देरी होना सामान्य बात होती है । सामान्य बातों में अज्ञानी मनुष्य झगड़ा करता रहता है, कषाय परवश बन जाता है। इससे अशांति, क्लेश और संताप जीवन में बढ़ते जाते हैं।
शांति और समता पाना है, आनंदमय और प्रसन्नतापूर्ण वातावरण यदि तू चाहता है तो हर घटना में कर्मसिद्धांत से मन का शीघ्र समाधान करना होगा।
'मुझे मेरा मनपसंद भोजन नहीं मिलता है, मेरे ही भोगांतराय कर्म की वजह से। मुझे जिस समय भोजन मिलना चाहिए उस समय नहीं मिलता है, मेरे ही भोगांतराय कर्म की वजह से। दूसरे लोगों का कोई दोष नहीं है । दूसरे लोग तो निमित्त बनते हैं।' ऐसे विचार करने चाहिए ।
ऐसा मत सोचना कि 'यदि घर के लोग लापरवाही करते हैं, और मैं उनको नहीं कहूँगा तो उनकी लापरवाही बढ़ेगी, वे अपने कर्तव्यों के पालन
में चुस्त नहीं रहेंगे... इससे घर में अव्यवस्था बन जाएगी, इसलिए कहना तो चाहिए, कभी फटकार भी देनी चाहिए...।'
कहना चाहिए, परंतु शांति से कहो । कर्तव्य पालन की शिक्षा देनी चाहिए, परंतु शांति से दिया करो। कोई अपना कर्तव्य भूल जाता है अथवा लापरवाही से पेश आता है तो समझाने का प्रयत्न करो, परंतु 'अपसेट' नहीं होना है । अस्वस्थ नहीं बनना है।
चेतन, तू दुकान से घर गया। घर में जा कर देखा तो पत्नी सोई हुई है और रसोईघर में रसोई-भोजन तैयार नहीं है! तू उस समय क्या करेगा ? क्या सोचेगा? ‘संभव है पत्नी की तबियत अच्छी नहीं हो, अन्यथा वह भोजन बनाती ही अथवा कहीं किसी के वहाँ से भोजन का निमंत्रण आया हो... मेरा इंतज़ार करती-करती वह सो गई हो ! उस को शांति से जगा कर पूछ लूँ...।' तू जगाता है और तेरा अनुमान सही निकलता है... तो वातावरण बिगड़ता नहीं है । भोजन
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