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पत्र :
प्रिय चेतन, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
तेरा प्रश्न है - 'मेरी श्रीमंत मामी के पास लाखों रुपये हैं, अच्छा बंगला है, गाड़ी है... फिर भी वह अपनी इच्छा के अनुसार भोजन नहीं कर सकती है...! ऐसा क्यों होता है?' __ चेतन, 'भोगांतराय' नाम का कर्म, तेरी मामी को बढ़िया भोजन नहीं करने देता है। ‘भोग' की परिभाषा करते हुए पंडितप्रवर वीरविजयजी ने कहा है:
__'एकवार जे भोगमां आवे वस्तु अनेक,
अशन-पान-विलेपन, भोग कहे जिन छेक।।' एक बार जिस वस्तु का भोग करने के बाद दूसरी बार जिसका भोग नहीं हो सकता है वैसी भोजन-विलेपन-पानी जैसी वस्तुएं 'भोग' कही जाती हैं। ___- जितने प्रमाण में 'लाभांतराय कर्म' टूटता है उतने प्रमाण में जीव को धनसंपत्ति मिलती है, भोग्य और उपभोग्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। __ - जितने प्रमाण में भोगांतराय कर्म टूटता है उतने प्रमाण में ही मनुष्य भोग्य वस्तुओं का भोग कर सकता है। भोग्य पदार्थ कितने भी हों मनुष्य के पास, वह सभी पदार्थों को भोग नहीं सकता है। खाने-पीने में मनुष्य स्वतंत्र नहीं है, 'भोगांतराय कर्म' नियामक होता है। कोई भी कारण उसे इच्छानुसार खाने-पीने नहीं देता है।
- चेतन, अभी दो दिन पहले ही मैंने सुना कि मेरे एक परिचित श्रीमंत गृहस्थ की मृत्यु हो गई। मैं उसको जानता था। बड़ा सुशोभित बंगला था __उसका | सुंदर वस्त्र पहनता था वह | परंतु मनपसंद मिठाई वह नहीं खा सकता था। मनपसंद पेय नहीं पी सकता था। चूँकि वह रोगी था! 'डायाबीटीस' नाम का रोग था!
- एक धनपति को श्रेष्ठ-उत्तम भोजन के प्रति अरुचि हो गई है! न वह मिठाई खाता है, न वह घी, दूध और मावा खाता है, न वह बादाम - काजू जैसा मेवा खा सकता है, न अच्छे फल खा सकता है। ऐसी उत्तम खाद्य वस्तुओं को देखता है... और वमन होने
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