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भिक्षा दी, उसी दिन रात्रि में उसकी मृत्यु हो गई और राजगृही में गोभद्र श्रेष्ठि के घर में उसका जन्म हुआ। भवपरिवर्तन के साथ ही पुण्य कर्म का यह उदय था!
चेतन, छल-कपट और अनीति-अन्याय कर पैसे कमाने की प्रवृत्ति दुःखदायिनी है। दूसरों को लूटकर श्रीमंत बनने की प्रवृत्ति घोर दरिद्रता को निमंत्रण देती है। जब यह यौवन समाप्त होगा, दूसरा जन्म फुटपाथ पर सोनेवाली भिखारिन के पेट होगा। जन्म से ही भिखारी बनेगा और अपने ही पूर्वजन्म के बंगले के द्वार पर भिक्षा माँगता खड़ा रहेगा...।
चेतन, जागृत रह कर जीवन यात्रा करना। कदम-कदम सावधान रहना है। एक महत्त्वपूर्ण सावधानी बताता हूँ। दान देने के बाद मैं दान नहीं देता तो अच्छा होता... हाय... मैंने बड़ी गलती कर दी दान देकर...' ऐसे विचार नहीं करना । ऐसे विचार करने से 'दानांतराय कर्म' तो बँधता ही है, साथ-साथ 'भोगांतराय' और 'उपभोगांतराय' कर्म भी बँधता है। ये कर्म जब उदय में आते हैं तब जीवन को तबाह कर देते हैं। जीवन में न दान, न भोग, न उपभोग होता है। न सुख देने का, न सुख भोगने का, न सुख से जीने का।
दुनिया में ऐसे अनेक लोग होते हैं न? पास में लाखों-करोड़ों रुपये होने पर भी वे एक पैसे का दान नहीं देते हैं। पेट भर भोजन नहीं कर
पाते हैं, अच्छा भोजन भाता नहीं है... अच्छे वस्त्र पहन नहीं सकते, अच्छे मकान में रह नहीं सकते, अच्छे अलंकार धारण नहीं कर सकते... जीवन भर मज़दूरी करते रहते हैं।
इसका कारण होता है दानांतराय कर्म, भोगांतराय कर्म और उप-भोगांतराय कर्म | वे कर्म बँधते हैं दूसरे जीवों को दानधर्म नहीं करने देने से, दूसरे जीवों के भोग-उपभोग में अंतराय करने से, विक्षेप करने से और दान देने के बाद पश्चात्ताप करने से । दान धर्म करने से सुख के साधन-धन-दौलत तो मिलती है, परंतु दान देने के बाद पश्चात्ताप करने से दानांतराय, भोगांतराय और उपभोगांतराय कर्म बँधते हैं। - 'व्याख्यान सुनने गया, वहाँ मुनिराज ने जिनमंदिर के निर्माण का उपदेश दिया, मैं बहकावे में आ गया, पाँच हजार का दान लिखा दिया... क्या करूँ? नहीं देने चाहिए थे पाँच हजार रुपये। जा कर मना कर दूँ? पाँच
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