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भटकने पर भी उसको भिक्षा नहीं मिलती है, वह राजगृही के गृहस्थों पर रोष करता है - ‘इस नगर के लोग निकम्मे हैं... लोभी हैं... दुष्ट हैं... कोई मुझे भिक्षा नहीं देता है...'
चौथे दिन वसंत-उत्सव था। नगर के हज़ारों स्त्री-पुरुष नगर के बाहर उद्यानों में गए। वहाँ ही खाना-पीना और खेलना होता था ।
भिखारी भी उद्यान में पहुँचा । 'आज उत्सव है, उत्सव के दिनों में लोग उदार बनते हैं, मुझे यहाँ भिक्षा अवश्य मिलेगी।' परंतु नहीं मिली भिक्षा । भिखारी अत्यंत क्रोधित हो गया। ‘ये सभी लोग दुष्ट हैं... मुझे भिक्षा नहीं देते ... मैं इन सभी लोगों को मार डालूँगा ।'
उद्यान, पहाड़ की तलहटी में आया हुआ था। पहाड़ पर एक बड़ी चट्टान थी, भिखारी ने सोचा - 'उस चट्टान को धक्का देकर गिरा दूँ... ये लोग कुचल जाएँगे.. मर जाएँगे।' वह पहाड़ पर चढ़ा और चट्टान को गिराने का प्रयत्न करने लगा... उसके पैर लड़खड़ाये और गिर पड़ा... वह चट्टान लुढ़क कर उसी भिखारी पर गिरी ... भिखारी मरा और सातवीं नरक में पैदा हुआ ।
दूसरों को मारने की दुर्भावना में मनुष्य मरता है, वह नरक में जन्मता है। नरक में कम से कम १० हजार वर्ष का आयुष्य होता है जीव का । ज्यादा से ज्यादा ३३ 'सागरोपम’ वर्षों का आयुष्य होता है, यानी असंख्य वर्ष।
उस भिखारी का दुर्भाग्य था कि उसको कोई समझाने वाला नहीं मिला कि - 'तुझे भिक्षा नहीं मिल रही है, तेरे ही 'लाभांतराय कर्म' की वजह से । राजगृही के लोग ख़राब नहीं है, दूसरे भिखारियों को वे भिक्षा देते हैं न? यदि लोग दुष्ट होते तो किसी भी भिक्षुक को वे भिक्षा नहीं देते। इसलिए लोगों के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए।'
तत्त्वज्ञान देनेवाले सत्यपुरुष का समागम भी पुण्य कर्म के उदय से ही होता है। तत्त्वज्ञान से ही जीव के प्रबल राग-द्वेष कम होते हैं, जीव को शांति मिलती है।
चेतन, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की जीवनी तू जानता है? जब वे संसारवास का त्याग कर अणगार बने, वे भिक्षा लेने के लिए घर-घर फिरने लगे, उनको कोई भिक्षा नहीं देता है! लोग सोना और चाँदी देने को तैयार हैं, हीरा और मोती देने को तत्पर हैं... परंतु भोजन कोई नहीं देता है । एक वर्ष से भी
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