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चेतन, तेरे चाचा-चाची के प्रति तू नफ़रत नहीं करना, उनके प्रति करुणापूर्ण हृदय से सोचना : 'ये बेचारे दानांतराय कर्म से कैसे बँधे हुए हैं! कैसे टूटेगा उनका यह कर्म?' ऐसे विचार करने से तेरे चाचा-चाची के साथ तू विनय से बात करेगा। उनका तिरस्कार नहीं करेगा, अपमान नहीं करेगा। तू द्वेष-कषाय से बच जाएगा। चूंकि जिसके प्रति अपने हृदय में करुणा पैदा होती है, उसके प्रति द्वेष नहीं होता है।
और जब तू करुणाभरे हृदय से चाचा-चाची के साथ बात करता रहेगा, तब उनके मन की बात... मन की उलझन... तेरे सामने वे प्रगट कर देंगे। वे कहेंगे : 'चेतन, मैं जानता हूँ, हमारे कोई संतान नहीं है... यह लाखों की संपत्ति छोड़कर एक दिन मरना है। परंतु मुझे और तेरी चाची को दान देने की इच्छा ही नहीं होती है। हाँ, दानधर्म की महिमा मैं जानता हूँ। कई दुःखी... दरिद्र लोगों को देखता हूँ तब हृदय में दु:ख भी होता है... परंतु उनको एक रुपया भी नहीं दे पाता हूँ। अरे भाई, कोई ज़रूरतमंद व्यक्ति पैसे लेने आता है, कोई वस्तु लेने आता है... आग्रह से माँगते हैं... तब उसके प्रति क्रोध आ जाता है। मुँह से कटु शब्द निकल जाते हैं... उसका अपमान कर देता हूँ...। ऐसा नहीं होना चाहिए, क्यों होता है - नहीं जानता हूँ।
तब तू उनको प्रेम से 'अंतराय-कर्म' का तत्त्वज्ञान दे सकता है। 'दानांतराय कर्म' की बात समझा सकता है। उनको कहना कि : 'आपकी आत्मा ने किसी जन्म में 'दानांतराय कर्म' बाँधा है। यानी आपने पूर्वजन्म में किसी को दान नहीं देने दिया होगा। किसी की दानधर्म की भावना पर हिमपात किया होगा। 'दानधर्म' की निंदा की होगी। चाचा, चाची, आपने पूर्वजन्म में, कोई मनुष्य जब साधु-महात्माओं को भिक्षा देता होगा, औषध देता होगा, रहने के लिए अपना मकान देता होगा, पढ़ने के लिए पुस्तक
देगा होगा, पहनने के लिए वस्त्र देता होगा, तब उसको रोका होगा | रोकने का प्रयत्न किया होगा। इससे 'दानांतराय कर्म' बंधा है।
वैसे, कोई मनुष्य दीन-अनाथ-अपाहिज़ को दया से प्रेरित होकर दान देता होगा तब आपने उसको रोका होगा। कहा होगा : ‘नहीं देना चाहिए दान... दान देने से ऐसे लोग आलसी-प्रमादी बन जाते हैं। कोई उद्योग नहीं करते हैं...' वगैरह। इससे दानांतराय कर्म बंधा है। इस जन्म में वह कर्म उदय में आया है!'
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