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तुझे इस पत्रमाला का पुनः पुनः अध्ययन करना होगा। चिंतन-मनन करना होगा।
चेतन, कर्म-सिद्धांत के विषय में तेरे लिए पर्याप्त मैंने लिखा है। वैसे तो इस विषय में जीवन पर्यंत लिखू, तो भी पूरा नहीं हो सकता। आज इस पत्र में एक नए विषय का निर्देश मात्र करता हूँ। 'विशुद्ध आत्म स्वरूप' का अध्ययन तुझे करना है। हम विशुद्ध आत्मा हैं। 'ज्ञानसार' में कहा गया है - 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं' 'मैं शुद्ध आत्म द्रव्य हूँ।' परंतु अनादिकाल से आत्मा और कर्म जुड़े हुए हैं। आत्मा और कर्मों का अनादि - संबंध है। आत्मा और कर्म दो तत्त्वों में से कर्म तत्त्व को तू अच्छी तरह जान गया । अब आत्म-तत्त्व को जानने का प्रयत्न करना। ___ कर्मों से मुक्त आत्मा 'शुद्ध आत्मा' कही जाती है, और कर्मों से मुक्ति पाई जा सकती है। कर्मबद्ध आत्मा को मुक्त करने का पुरुषार्थ भी आत्मा को ही करना है। स्वयं को मुक्त करने का पुरुषार्थ भी स्वयं को ही करना है। दूसरा कोई हमें मुक्त नहीं कर सकेगा। 'मुझे शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा बनना है,' यह दृढ़ संकल्प करना होगा। दृढ़ संकल्प, दृढ़ निर्णय के बिना कार्य सिद्धि नहीं हो पाती है।
चेतन, पूर्णानन्दमय, पूर्ण सुखमय... पूर्ण ज्ञानामय आत्मा की कल्पना तो करना। विशुद्ध आत्मा की यह कल्पना इतनी मधुर... इतनी सुंदर... और इतनी लुभावनी होती है कि मन वह विशुद्ध स्वरूप पाने के लिए तड़पने लगता है! बारबार ऐसी तड़पन पैदा होती रहेगी तो एक दिन तू विशुद्ध स्वरूप पा लेगा। विशुद्ध स्वरुप पाने के मार्ग पर चल देगा!
चेतन, वह मार्ग है तपश्चर्या का | कर्मों का बंधन तोड़ने के लिए और विशुद्ध आत्म स्वरुप पाने का श्रेष्ठ मार्ग है तपश्चर्या का | परंतु तपश्चर्या को विशाल अर्थ में समझना। तीर्थंकरों ने बारह प्रकार की तपश्चर्या बताई ___ है। 'तपसा निर्जरा च।' यह सूत्र दिया है। तप से कर्मों की निर्जरा होती है, यानी कर्मों का नाश होता है।
अब बारह प्रकार के तप के नाम लिखता हूँ| १. अनशन (उपवास इत्यादि) २. उणोदरी (क्षुधा से कम खाना) ३. वृत्ति संक्षेप (कम संख्या में वस्तु खाना) ४. रस त्याग (रसास्वाद का त्याग करना)
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