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१२. असत्य बोलकर धन की चोरी करने से, १३. नौकर-चाकर, बच्चे, दीन-अनाथ, पशु को भोजन दिए बिना स्वयं
भोजन करने से, १४. धर्मकार्य करने में 'अशक्ति' बताने से, १५. परस्त्री के साथ व्यभिचार करने से, १६. व्यापार का गलत हिसाब-किताब रखने से, १७. किसी की अमानत हड़पने से, १८. बच्चों को फँसाकर, परदेश में बेचने से, १९. बाल-कुमारिकाओं को फँसाकर, उनका शील भंग करने से, २०. पिंजरे में तोता वगैरह पक्षी को या पशुओं को बंद करने से।
अंतराय-कर्म बाँधने के ये प्रमुख २० कारण हैं। इसके अलावा दूसरे भी कारण हैं। इन कारणों से अंतराय कर्म बँधता है। जब ये कर्म उदय में आते हैं तब मनुष्य दान नहीं दे पाता है, धन-धान्य की प्राप्ति नहीं होती है, भोगसुख भोग नहीं सकता है, घर, स्त्री, अलंकार वगैरह का उपभोग नहीं कर सकता है। उसके मन में उल्लास-उमंगे नहीं उठती हैं, शरीर अशक्त होता है।
चेतन, अब सर्वप्रथम 'दानांतराय' कर्म के बंध हेतु बताता हूँ :
- दान देने की सामग्री होते हुए भी जो साधु-साध्वी को सुपात्र दान नहीं देता है, दीन-अनाथ को अनुकंपादान नहीं देता है, अतिथि का उचित सत्कार नहीं करता है, वह दानांतराय कर्म बाँधता है। जो मनुष्य स्वयं तो दान नहीं देता हैं, परंतु जो दान देते हैं उनको भी रोकता है, दानधर्म की निंदा करता है, वह दानांतराय कर्म बाँधता है। जब इस कर्म का उदय आता है, मनुष्य के मन में दान देने की भावना ही पैदा नहीं होती है। वह कंजूस-कृपण बनता है।
दूसरा हैं 'लाभांतराय' कर्म, उसके बंधहेतु बताता हूँ :
- धन कमाने के लिए कितने भी व्यापार करे, प्रयत्न करे, परंतु थोड़ा सा भी धन प्राप्त नहीं करता है, सारे प्रयत्न विफल हो जाते हैं - यह है लाभांतराय कर्म का फल। ऐसा कर्म जीव निम्न कारणों से बाँधता है -
१. किसी की धनप्राप्ति में रुकावट डालने से,
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