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नामकर्म के उदयवाले लोग मिलते हैं और अपना दुःख व्यक्त भी करते हैं।
कोई कहता है : 'हम घर में बहुत काम करते हैं, फिर भी हमारी कद्र नहीं होती है। कोई धन्यवाद के दो शब्द भी नहीं बोलते हैं।'
कोई कहता है : 'कितने भी संघ-समाज के काम करें, परंतु किसी को भी मूल्य नहीं है। अब तो संघ-समाज के कोई काम करने नहीं है... जहाँ कद्रदानी नहीं हो, वहाँ क्यों काम करना?'
कोई कहता है : 'मैं निःस्वार्थ भावना से गाँव के काम करता हूँ, फिर भी जिसके भी घर जाता हूँ, कोई प्रेम से बात नहीं करता है!'
'दुभंग-नामकर्म' दुर्भाग्य देता है। अच्छे काम करो या बुरे काम करो! दुर्भाग्य के ही बादल छाए रहेंगे। ___ 'सुभग-नामकर्म' सौभाग्य देता है। जिस मनुष्य को इस कर्म का उदय होता है, वह रास्ते पर से गुजरता होगा, तो आसपास के दुकानदार प्रेम से उसको बुलाएँगे। प्रेम से बात करेंगे। उसके घर या दुकान में आने पर लोग खुश होंगे। ___ 'दुभंग-नामकर्म के उदय से मनुष्य, दूसरों को प्रिय नहीं लगता है। वह घर या दुकान में आ जाता है तो उसको आदर नहीं मिलता है, उसके साथ लोग प्रेम से बात नहीं करते । आनेवाला व्यक्ति नाराज हो जाता है। क्योंकि यह कर्मसिद्धांत को वह जानता नहीं है। 'मेरा दुर्भंग नामकर्म का उदय होने से मुझे लोगों का आदर नहीं मिल रहा है, यह बात नहीं समझता है, इसलिए उसके मन का सही समाधान नहीं हो पाता है। वह राग-द्वेष में उलझ जाता है। जिस व्यक्ति से वह प्रेम और आदर की अपेक्षा रखता होगा, उस व्यक्ति
के प्रति उसके मन में द्वेष-तिरस्कार भर जाएगा। 'मैंने इतने अच्छे काम किए, फिर भी उसने मुझे खुश होकर धन्यवाद के दो शब्द भी नहीं कहे। और वह... आया; जिसने जीवन में एक भी अच्छा काम नहीं किया है, उसको प्रेम से बुलाया... प्रेम से बातें की... मेरे सामने भी नहीं देखा। मैंने उसके कितने काम किए हैं? अब मैं उस का मुँह भी नहीं देखना चाहूँगा।'
चेतन, 'कर्मसिद्धांत' का सही ज्ञान होने से मनुष्य ऐसे फालतू राग-द्वेष से बच जाता है। और यह सोचता है कि 'मैंने ऐसा दुर्भंग-नामकर्म क्या करने से बाँधा होगा? अब मैं ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं करूँगा कि जिससे नया दुभंग-नामकर्म बँध जायं ।' वास्तव में यही काम करना है... राग-द्वेष पर विजय पाने का | सारे तत्त्वज्ञान का यही प्रयोजन है। सम्यग ज्ञान से ही राग-द्वेष पर विजय पाया जा
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