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अग्निभूति बोले : 'प्रभो, आपकी बात सही है। मेरे मन में 'कर्म' के अस्तित्व के विषय में शंका है। भगवंत, प्रत्यक्ष प्रमाण से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है न?'
भगवंत ने कहा : 'महानुभाव, मैं मेरे ज्ञानालोक में कर्मों को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।' अग्निभूति ने पूछा : 'भगवंत, मैं और दूसरे लोग क्यों नहीं देख सकते हैं?' 'चूंकि मेरे पास कर्म जैसे परोक्ष द्रव्यों को देखने की दृष्टि है, तेरे पास वैसी दृष्टि (केवलज्ञान की) नहीं है, इसलिए तू कर्मों को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता है। जिस मनुष्य को केवलज्ञान प्रगट होता है वह कर्मों को प्रत्यक्ष देख सकता है। दूसरी बात, मैंने तेरे मन की शंका को देखी न? तू मानता है न?'
'प्रभो, आप के पास पूर्ण ज्ञान है, आप कर्मों को प्रत्यक्ष देखते हैं, परंतु मैं और मेरे साथी कर्म का अस्तित्व मानें - इसके कौन से तर्क हैं? मैंने तर्क-अनुमान से भी कर्म के अस्तित्व के विषय में सोचा है, परंतु मैं कर्म के विषय में निःशंक नहीं बना हूँ।' __ 'अग्निभूति, कार्य से कारण का अनुमान होता है न? सुख-दुःख के कोई कारण होने चाहिए न? सुख का कारण पुण्य कर्म है और दुःख का कारण पाप कर्म है! सुख-दुःख कार्य हैं, कर्म उसके कारण हैं। जैसे अंकुर कार्य है तो बीज उसका कारण है!'
'हे भदंत, सुख और दुःख के प्रत्यक्ष कारण दिखते हों, तो फिर परोक्ष कारण (कर्म) क्यों मानना चाहिए? जीवात्मा को मधुर संगीत से, सुंदर रूप से, प्रिय रस से, प्रिय सुगंध से और मुलायम स्पर्श से सुख का अनुभव होता है और अप्रिय शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श से दुःख होता
है! धन से सुख होता है, निर्धनता से दुःख होता है! सुख-दुःख के ये प्रत्यक्ष कारण ही मानने चाहिए न?'
'अग्निभूति, सुख-दुःख के प्रत्यक्ष कारण, जो तूने बताए, वे वास्तविक नहीं है। सुख के कारण कभी दु:ख के निमित्त बन जाते हैं और दुःख के कारण कभी सुख के निमित्त बन जाते हैं! निरोगी मनुष्य को मिष्टान्न सुख देता है, वही मिष्टान्न रोगी मनुष्य के लिए दुःख का कारण बनता है! तेरे गले में कोई पुष्पमाला डालेगा तो तू सुखी होगा... परंतु कुत्ते के गले में पुष्पमाला डालेगा.. तो कुत्ता उसे तोड़ डालेगा, फेंक देगा! फूलमाला को तू सुख का कारण मानेगा या दुःख का? हे महाभाग, तू राज्य वैभव को सुख का कारण मानता है न?'
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