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पत्र ९
६८ योगीश्वर के इस बात पर प्रश्न पैदा होता है कि 'आपने कैसे जाना कि इन सब गतियों में... योनियों में आपको परमात्मा के दर्शन नहीं हुए?' इस प्रश्न का जवाब वे स्वयं देते हैं - इम अनेक थल जाणिए दर्शन विण जिनदेव आगमथी मत जाणिए कीजे निर्मल सेव...
वे कहते हैं- मैंने यह बात आगम ग्रन्थों से जानी है। सर्वज्ञ शासन से मुझे ज्ञात हुआ है कि वैसी-वैसी योनियों में मुझे जिनेश्वरदेव के दर्शन नहीं मिले हैं। 'आगमथी मत जाणिए' यानी आगमग्रन्थों से मुझे यह विचार [मत] मिला है।
इसलिए हे सखी! इस मनुष्य जीवन में, जब परिपूर्ण पाँच इन्द्रियाँ मिली हैं और परिशुद्ध मन मिला है, तब परमात्मा की निष्काम भाव से सेवा कर लेने दे। रुकावट मत कर। विलंब मत करने दे। जब मुझे श्री चन्द्रप्रभस्वामी का सान्निध्य प्राप्त हुआ है, तब...मेरी तीव्र इच्छा को परिपूर्ण होने दे | ऐसा योगसंयोग महान् पुण्य के उदय से प्राप्त होता है।
सद्गुरु का संयोग भी महान् पुण्योदय से प्राप्त होता है - यह बात बताते हुए कहते हैं - निर्मल साधु भक्ति लही योग-अवंचक होय, क्रिया-अवंचक तिम सही फल-अवंचक जोय।
वंचक का अर्थ होता है, ठगने वाला । अवंचक यानी नहीं ठगने वाला । कुछ व्यक्तियों का संयोग ठगने वाला होता है। या तो वह हमें ठगता है, या हम उसको ठगते हैं। साधु पुरुषों का संयोग ठगने वाला नहीं होना चाहिए। न उनको हम से कोई भौतिक स्वार्थ होना चाहिए, न हमें उनसे कोई भौतिकसांसारिक स्वार्थ होना चाहिए | तब वह योग-संयोग 'अवंचक' होता है।
जिनके दर्शन होने मात्र से पापी पावन बन सकता है, जिनके दर्शन मात्र से कल्याण की प्राप्ति हो सकती है, ऐसे सज्जन साधु पुरुषों का दर्शन मिलना, उसे 'योग-अवंचक' कहते हैं।
ऐसे साधु पुरुषों का योग मिलने पर, उनको वंदन करना, सेवा करना...निष्काम भाव से, वह है 'क्रिया अवंचक' | उनसे उपदेश पाकर हर धर्मक्रिया विधिपूर्वक करनी चाहिए। क्रिया-अवंचक योग प्राप्त करने वाला वैसे ही क्रिया करेगा।
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