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प्रकाशक की ओर से
(प्रथम आवृत्ति में से) श्री आनंदघनजी!
अलख की धूनी रमानेवाले योगीराज!
रसभरपूर जीवन के मस्त गायक! __विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में हुए श्री आनंदघनजी द्वारा रचित चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की स्तवना त्यागवैराग्य एवं जिन्दा अध्यात्म को जीनेवाले साधकों के लिए अध्यात्म-यात्रा का स्पष्ट नक्शा है.... मानो कि 'ब्ल्यू प्रिन्ट' है!
अरावली के बीहड़ जंगलों में से गुजरते हुए योगीराज जब परमात्मा की स्तवना में लीन-तल्लीन होते होंगे, तब उनके स्वर की बुलंदी पूरे वातावरण को भरा पूरा बना देती होगी! ___ परमात्मा की स्तवना में जैसे उन्होंने प्रीति-भक्ति व अनुरक्ति के भावों को गूंथा है.... वैसे ही जिनशासन के गूढ़ रहस्य नय-निक्षेप और इच्छायोग.... सामर्थ्ययोग.... शास्त्रयोग की अतल गहराइयों की बातें भी की हैं!
बेशुमार विवेचनाएँ लिखी गई हैं, इन स्तवनों पर!
चार वर्ष पूर्व 'अरिहंत' [मासिक पत्र] में आचार्यदेव श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज ने पत्र रूप में आनंदघन चौबीसी के स्तवनों पर सरस-सरल और संक्षेप में विवेचना लिखी थी, जो कि अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। वही विवेचना आज ग्रंथ रूप में संकलित होकर 'मारग साचा कौन बतावे' के शीर्षक तले आप तक पहुँच रही है। इसका गुजराती अनुवाद भी साथ-साथ प्रकाशित हो रहा है।
स्तवना-विवेचना के साथ-साथ प्रत्येक तीर्थंकर की विशेष प्रार्थना-जीवन परिचय भी अलग से दिया गया है! । हालाँकि योजना तो बनाई थी सभी तीर्थंकर भगवन्तों के विशेष फोटो भी छपाने की। पर कुछ अपरिहार्य कारणवश फिलहाल फोटो इसमें सम्मिलित नहीं कर पा रहे हैं।
प्रस्तुत पुस्तक आप सभी के स्वाध्याय के लिए अटूट और भरपूर चिंतन-मनन व मंथन का संबल बनेगी-इसी कामना के साथ प्रकाशन में रह गई त्रुटियों के लिए क्षमायाचना! __ महेसाणा
ट्रस्टीगण वि. सं. २०४४/ श्रावण
श्री वि. क. प्र. ट्रस्ट अगस्त/१९८८
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