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पत्र ५
२८
आनन्दघनजी परमात्मा के चरणों में गद्गद स्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैं
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देजो कदाचित् सेवक -याचना रे, आनन्दघन रस रूप...
'हे आनन्दपूर्ण! हे रसपूर्ण परमात्मन्! कभी तो ऐसी सेवा करने का सौभाग्य मुझे देना...! सेवक और कुछ नहीं चाहता है... बस, आपकी अगमअनूप सेवा चाहता हूँ।'
चेतन, कविवर ने सेवा माँग कर क्या - क्या माँग लिया? कैसी गुणसमृद्धि माँग ली! अपन भी परमात्मा से उनकी सेवा करने की योग्यता ही माँग लें।
तू इन स्तवनाओं का स्वस्थ मन से परिशीलन करना। एक-एक बात को समझने का प्रयत्न करना । इसलिए दो-तीन बार पढ़ना पड़े तो भी पढ़ना । तेरी कुशलता चाहता हूँ।
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प्रियदर्शन