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पत्र ३
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० अजित, मैं पुरुष कैसे ? पुरुष में तो पौरुष होता है, मेरे में पौरुष ही कहाँ है? यदि मेरे में पौरुष होता तो मैं राग-द्वेष पर विजय पा लेता । मैं पुरुष कहलाने योग्य नहीं हूँ ।
० यदि अंध मनुष्य दूसरे अंधे को मार्ग बताता है, तो वह दूसरे अंधे को जनप्रणीत मार्ग से दूर ले जाता है। या तो उन्मार्गगामी बन जाता है । ● तर्क की जाल में फँसने वाले सिवाय वाद-विवाद और कुछ भी नहीं पाते हैं। वाद-विवाद से कभी अगोचर तत्त्वों का निर्णय नहीं हो सकता है। │││││││ III
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पत्र : ३
श्री अजितनाथ स्तवना
१४
प्रिय चेतन,
धर्मलाभ!
तेरा भक्तिसभर पत्र पढ़कर बहुत आनन्द हुआ । प्रथम तीर्थंकर की स्तवना का विवेचन तुझे अच्छा लगा, जानकर मन प्रसन्न हुआ। आज मैं भगवान् अजितनाथ की स्तवना का संक्षिप्त विवेचन करूँगा ।
चेतन, मनुष्य जिसके साथ हार्दिक स्नेह के स्वस्तिक रचाता है, जिसके प्रति आन्तर प्रीति के पुष्प खिल जाते हैं, उसके मिलन की चाहना ... सानिध्य पाने की तमन्ना... उसी में विलीन हो जाने की अभिप्सा पैदा हुए बिना नहीं रहती है।
अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी ने स्वयं विरक्त होने पर भी... प्रथम तीर्थंकर के साथ प्रीति बाँध ली । परमात्मा के साथ वे प्रेम के बंधन से बंध गये। स्वयं बंध गये। कभी मन को बन्धन भी अच्छे लगते हैं न? रागी-द्वेषी जीव से विरक्ति इसी दृष्टि से उपादेय है... कि जीवात्मा वीतरागी - वीतद्वेषी से आसक्ति कर सके !
परमात्मा से प्रेम करने के बाद, कवि को अब इस दुनिया में रहना सुहाता नहीं है...। वे परमात्मा के पास पहुँचने का पथ खोजते हैं।
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परमात्म-मिलन के लिए अधीर बनी हुई आत्मा उनके पास जाने के लिए बावरी बनकर मार्ग खोजती है। मार्ग खोजने के लिए महायोगी के मन में कैसा मंथन चला होगा और इस स्तवना की रचना हो गई होगी.... वह तू सोचना !