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पत्र २५
२२६ ___ असंख्य वीर्यांशों का एक 'योगस्थान' कहा गया है। ऐसे 'योगस्थान' भी असंख्य [असंखित] हैं-ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। ये योगस्थान जितने ज्यादा होते हैं, तदनुसार कार्मण वर्गणा के पुद्गल, जीव ज्यादा ग्रहण करता है। यदि योगस्थान कम होते हैं, तो कर्मपुद्गल कम ग्रहण करता है । इसलिये कहा-'यथाशक्ति' और 'मति-लेखे'। 'मति लेखे' यानी अध्यवसाय के अनुसार |
दूसरा अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है
आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं, एक-एक प्रदेश में असंख्य वीर्यांश रहे हुए हैं और मन-वचन-काया के योग भी असंख्य हैं। आत्मा अपने वीर्यांशों के आधार पर [यथाशक्ति] और अपने अध्यवसायों [मति लेखे] के अनुरूप कार्मण वर्गणा के पुद्गलों के समूह [पुद्गलगण] विशेष रूप से ग्रहण [ले] करती है। यानी आत्मा के साथ कर्मबंध होता है।
कर्मबंध कम होने में और नहीं होने में भी 'वीर्य' ही प्रमुख कारण है, यह बताते हुए कविराज कहते हैंउत्कृष्ट वीर्य निवेश, योग क्रिया नवि पेसे रे, योग तणी ध्रुवताने लेशे, आतमशक्ति न खेसे रे.... ___ ज्यों-ज्यों आत्मा अपने वीर्य की वृद्धि करती जाती है और उत्कृष्ट वीर्य की प्राप्ति हो जाती है, तब उस आत्मा में मन-वचन-काया के योगों का प्रवेश नहीं होता है। वीर्य की वृद्धि के साथ मन-वचन-काया की प्रवृत्ति कम होती जाती है। मंद हो जाती है और बाद में संपूर्णतया बंद हो जाती है।
वीर्य, जो कि मन-वचन-काया की प्रवृत्ति में खर्च होता था, वह बंद होकर आत्मा में स्थिर होता जाता है। मन-वचन-काया के योग स्थिर [ध्रुवता] होते जाते हैं, संपूर्णतया स्थिर हो जाते हैं। उन योगों की आत्मशक्ति जरा भी खिसका सकती नहीं है।
तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट वीर्य को मन-वचन-काया के योग कोई असर नहीं कर सकते और मन-वचन-काया के योगों पर वीर्य का कोई असर नहीं होता! दोनों अलग-अलग हो जाते हैं!
अब, वीर्य से आत्मा कैसे भोगी बनती है, कैसे योगी बनती है और कैसे अयोगी बनती है, यह बात बताते हैंकामवीर्य वशे जिम भोगी, तिम आतम थयो भोगी रे, शूरपणे आतम-उपयोगी थाय तेह अयोगी रे....
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