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पत्र २५
श्री आनन्दघनजी के भीतर तो पार्श्वनाथ हो सकते थे! चूँकि उनकी प्रसन्नता थी आत्मगुणों में और रमणता भी थी आत्मगुणों में ! इसलिये उन्होंने गाया कि 'आनन्दघन मुज मांही....
चेतन, इस स्तवना में अलबत्ता, पार्श्वनाथ भगवंत की स्तुति नहींवत् है, परंतु ‘ज्ञान-ज्ञेय ́ की चर्चा बहुत ही रसिक है । अनेकान्त दृष्टि से इस विषय पर चिंतन किया जाय तो अपूर्व आनन्द का अनुभव हो सकता है।
तूने पर्युषणापर्व में 'गणधरवाद' का प्रवचन सुना है न? गणधरवाद में श्रमण भगवान महावीर स्वामी, श्री इन्द्रभूति गौतम को उनके मन की शंका को स्फूट करते हुए कहते हैं कि 'वेद में जो तूने पढ़ा - विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तानि एव अनुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति।' इसका अर्थ तू सही नहीं करता है। मैं उसका अर्थ बताता हूँ।'
'जब ज्ञानोपयोग [विज्ञानघन] पंचभूत [पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश] में से किसी भी भूत में प्रवृत्त होता है, तब आत्मा तद्रूप बन जाती है, परंतु जब ज्ञानोपयोग दूसरे भूत में प्रवृत्त होता है, तब पूर्व का ज्ञानोपयोग नष्ट हो जाता है। वर्तमानकालीन ज्ञानोपयोग में भूतकालीन ज्ञान का संस्कार नहीं रहता है। आत्मा तो वही रहती है, परंतु पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से ऐसा कहा जा सकता है कि भूतकालीन ज्ञानपर्याय वाली आत्मा नष्ट हो गई, वर्तमानकालीन ज्ञानपर्याय वाली आत्मा उत्पन्न हुई ! इस अपेक्षा से आत्मा का नाश और उत्पत्ति कही जा सकती है । परंतु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मा ध्रुव है, अविनाशी है। ज्ञानोपयोग का परिवर्तन होने पर भी आत्मा ध्रुव रहती है।
इन्द्रभूति गौतम के मन का समाधान होता है और वे भगवान् महावीरस्वामी के शिष्य बन जाते हैं ।
आत्मगुणों में प्रीति और आत्मगुणों में रमणता करते-करते तेरे भीतर 'आनन्दघन' प्रगट हो-यही मंगल कामना ।
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प्रियदर्शन