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पत्र २४ आत्मा विभु नहीं है तो फिर सर्वज्ञ कैसे? यह प्रश्न वेदान्त का है। 'एक निश्चित स्थान में रही हुई आत्मा लोक-अलोक का संपूर्ण ज्ञान कैसे पा सकती है-यह बात वेदान्तदर्शन की समझ में नहीं आयी, इसलिये यह प्रश्न पैदा होना उसके लिये स्वाभाविक है।
श्री आनन्दघनजी ने, जैसे कि वेदान्त दर्शन की ओर से ही चर्चा की होइस प्रकार प्रतिपादन किया है। अब, समाधान भी वे ही कर रहे हैं, जैनदर्शन की तत्त्वशैली से।
चेतन, यह 'सर्वज्ञवाद' है! श्री पार्श्वनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से श्री आनन्दघनजी ने आत्मा की सर्वज्ञता सिद्ध करने का सुंदर प्रयत्न किया है।
हालाँकि इस स्तवना का विषय तेरे लिये अज्ञात तो है ही, परंतु समझना भी इतना सरल नहीं है। फिर भी पुनः-पुनः चिंतन करेगा तो विषय स्पष्ट हो जायेगा । वास्तव में तो आत्मवाद, सर्वज्ञवाद, कर्मवाद, नयवाद.... वगैरह वाद गहन अध्ययन के विषय हैं। अध्ययन किये बिना मात्र पढ़ने से समझ में नहीं आ सकते । पूर्णरूपेण विषय स्पष्ट नहीं होता है। ___ अब, मैं तुझे योगीराज के उठाये हुए प्रश्नों का समाधान देता हूँ। बाद में योगीराज ने सातवीं गाथा में जो समाधान दिया है वह बताऊँगा!
पहला प्रश्न : आत्मा को सर्वज्ञ मानोगे तो, ज्ञेय का स्वरूप आत्मा का स्वरूप बन जायेगा, अतः आत्मा में पर-रूपता आ जायेगी।
समाधान : जिस प्रकार दर्पण में वस्तु का प्रतिबिंब गिरता है, वैसे शुद्ध आत्मा में ज्ञेयरूप लोकालोक का प्रतिबिंब गिरता है। जिस प्रकार दर्पण में वस्तु का प्रतिबिंब गिरने पर दर्पण प्रतिबिंबित वस्तुरूप नहीं बन जाता है, पररूप नहीं बन जाता है, वैसे आत्मा परद्रव्यों का ज्ञान करती है, फिर भी पर-रूप नहीं बन जाती है।
दूसरा प्रश्न : ज्ञेय नष्ट होने पर ज्ञान नष्ट होता है, वैसे आत्मा भी नष्ट होगी न! चूंकि ज्ञान-ज्ञानी का अभेद माना है। आत्मा का नाश मानोगे?
समाधान : आत्मा द्रव्य है, वह शाश्वत् है, परंतु आत्मा का ज्ञानगुण पर्याय है, वह उत्पन्न होता है और नष्ट भी होता है। पर्याय के नाश के साथ आत्मा का नाश [द्रव्य का नाश] नहीं होता है। द्रव्य नित्य होता है। पर्याय अनित्य होता है।
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