________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पत्र २४
२१४ चेतन, जो आत्मा ध्रुवपद में-मोक्ष में होती है, अथवा पूर्ण ज्ञानी बनी हुई शरीरस्थ होती है, उस आत्मा का ज्ञान लोकालोक व्यापी होता है। यानी पूर्ण आत्मा का पूर्ण ज्ञान सर्वव्यापी होता है। वह आत्मा सब कुछ जानती है.... सब कुछ देखती है। ____ - जाननेवाली आत्मा ज्ञायक [जाणग] कही जाती है और जिसको जानती है, उसको ज्ञेय कहते हैं, ज्ञेय और ज्ञायक-दोनों भिन्न होते हैं। ___ - जैन दर्शन, ज्ञान और ज्ञानी को अभिन्न भी मानता है। इस मान्यता के अनुसार, ज्ञान सर्वव्यापी है, तो ज्ञानी [आत्मा] भी सर्वव्यापी हो गया! हालाँकि आत्मद्रव्य को जैन दर्शन ने विभु [सर्वव्यापी] नहीं माना है। आत्मा शरीरव्यापी होती है। शरीररहित होने पर, वह एक निश्चित क्षेत्र में रहती है। हर आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र होता है।
- तीसरी बात भी समझ ले, ताकि इस स्तवना की दूसरी गाथा तेरी समझ में आ जायेगी। आत्मा से पर [भिन्न] ऐसे ज्ञेय पदार्थों को दूसरी आत्माओं को भी] जब आत्मा जानती है, उस समय उन ज्ञेय पदार्थों का आत्मा में प्रतिबिंब गिरता है, आत्मा ज्ञेयरूप बन जाती है.... यानी पर-पदार्थों में परिणत हो जाती है....। फिर भी वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व [स्वसत्ता] कि जो चेतनारूप है, उनको बनाये रखती है!
यह बात बताते हुए योगीराज कहते हैंसर्वव्यापी कहे सर्व जाणगपणे, परपरिणमन-स्वरूप, पररूपे करी तत्त्वप] नहीं, स्वसत्ता चिद्रूप....
चेतन, जरा एकाग्रता से इस बात को पढ़ना। चूंकि यह विषय तेरे लिये नया है। जो ज्ञेय पदार्थ जड़ हैं, चेतनारहित हैं, उन पदार्थों को चेतनास्वरूप आत्मा जानती है, फिर भी वह जड़ नहीं बन जाती है! चित्स्वरूप अपना अस्तित्व कायम रखती है। यह तात्पर्य है इस गाथा का।
अब आगे कहते हैंज्ञेय अनेके हो ज्ञान-अनेकता, जल भाजन रवि जेम द्रव्य एकत्वपणे गुण-एकता, निजपद रमता हो खेम....
योगीराज एक तात्त्विक प्रश्न उठाते हैं। वे कहते हैं कि आकाश में सूर्य एक है, जमीन पर पानी से भरे हुए बरतन अनेक हैं। हर बरतन में अलग
For Private And Personal Use Only