________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पत्र २४
२१२ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० जाननेवाली आत्मा ज्ञायक कही जाती है, और जिसको जानती है,
उसको ज्ञेय कहते हैं। ज्ञेय और ज्ञायक-दोनों भिन्न होते हैं। ० जैनदर्शन ने आत्मद्रव्य को विभु [सर्वव्यापी] नहीं माना है, आत्मा शरीर
व्यापी होती है। शरीररहित होने पर वह एक निश्चित क्षेत्र में रहती है। ० 'आत्मा विभु नहीं तो सर्वज्ञ कैसे?' यह प्रश्न वेदान्त का है। 'एक निश्चित स्थान में रही हुई आत्मा, लोक-अलोक का संपूर्ण ज्ञान कैसे
पा सकती है, यह बात वेदान्त-दर्शन की समझ में नहीं आयी। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : २४
श्री पार्श्वनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, आनन्द हुआ।
श्री नेमनाथ भगवंत की स्तवना में तुझे ध्येय और ध्याता की एकता का विवेचन बहुत पसंद आया, जानकर खुशी हुई। रहस्यभूत बात तो यही है कि अपनी आत्मा ही अपना ध्येय है! बाहर के ध्येय तो निमित्त मात्र हैं। इसलिये स्वशक्ति से ही आत्मा को अपने स्वरूप में स्थिर होना है।
श्री नेमनाथ भगवंत के साथ राजीमती का नाम अभिन्न रूप से जुड़ गया है। आठ-आठ भव तक दोनों का पति-पत्नी का संबंध बना रहा है। राजीमती की बाह्य और आन्तरिक योग्यता का विचार करने पर उस पवित्र सन्नारी के प्रति नतमस्तक हो जाता हूँ। भगवान् नेमनाथ ने तो बाद में मोक्ष पाया, उनके पहले राजीमती मोक्ष में पहुँच गयी! इस स्तवना में श्रीमद् आनन्दघनजी ने प्रेमरस के साथ-साथ शान्तरस की अद्भुत निष्पत्ति की है। अब श्री पार्श्वनाथ भगवंत की स्तवना का अवगाहन करते हैं : ध्रुवपद रामी! हो स्वामी माहरा,
निष्कामी गुणराय! सुज्ञानी, निज गुणकामी हो पामी तुं धणी,
आरामी हो थाय.... सुज्ञानी....
For Private And Personal Use Only