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पत्र २३
२०५ यदि आप शादी करके मुझे साथ ले जाते तो मेरी बात सही सिद्ध होती और सखी हार जाती। 'रागीशुं रागी सह रे, वैरागीश्यो राग?' राग विना किम दाखवो रे, मुगति सुंदरी माग? ___ मेरे प्राणाधार, आप कहोगे कि 'दुनिया में रागी से ही सभी राग करते हैं, मैं तो वैरागी हूँ, तो मेरे से तू कैसे राग करेगी!' ओहो! क्या मुझे भोली समझ कर पटा रहे हो, मेरे साजन? यदि आप में राग नहीं होता तो मुक्तिसुंदरी-मोक्ष के पास जाने का मार्ग [माग] आप कैसे बता रहे हो दुनिया को?
आपको मुक्तिसुंदरी से राग नहीं था, तो फिर आपने मेरा त्याग क्यों कर दिया? ऐसा कह दो, 'राजीमती, अब तेरे से राग नहीं करना है...।' बस, वैरागी होने का बहना मत बनाओ। एक गुह्य घटतुं नथी रे, सघलोय जाणे लोक, अनेकांतिक भोगवो रे, ब्रह्मचारी गतरोग...
'हे नाथ! समग्र [सघलोय] दुनिया आपको नीरोगी [गतरोग] और ब्रह्मचारी जानती है । और आप 'अनेकांतिकता' के साथ भोग भोगते हो! व्यभिचार सेवन करते हो...यह गुह्य-गुप्त बात मेरे मन में जमती नहीं है!'
[राजीमती का यह मीठा उपालंभ है। परमात्मा 'अनेकांतवाद का सिद्धान्त बताते हैं, यानी अनेकान्तवाद तीर्थंकर का अभिन्न अंग है...मुख्य उपदेश हैइस बात को लेकर कहा कि आप अनेकांतिकता के साथ भोग भोगते हो।]
राजीमती यहाँ पर भगवान नेमनाथ की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की तरफ इशारा करके, उपालंभमय-उलाहनेभरे स्वर में स्तवना कर रही है। उलाहने के शब्दों के भीतर तो प्रेम का पारावार हिलोरे ले रहा है...समर्पण भाव का सागर उफन रहा है... जिण जोणे तुमने जोऊ रे, तिण जोणे जुओ राज! एक वार मुजने जुओ रे, तो सीजे मुज काज! [जिण-जिस, जोणे-दृष्टि से, तिण-उस, सीजे-सिद्ध होना
मेरे राजा, जिस दृष्टि से मैं आपको देखती हूँ, उस दृष्टि से आप मुझे देखें | नाथ, बस, एक बार मुझे देख लो...मेरा कार्य सिद्ध हो जायेगा। एक
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