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पत्र २२ इलिका भुंगी मन ध्यावे ते भुंगी जग जोवे...
तो उपमा बराबर जंचती है। ढोला भौंरी का ध्यान करती-करती भौंरी बन जाती है, वैसे मुमुक्षु आत्मा जिनेश्वर का ध्यान करते-करते जिन बन जाती है।
ध्यान करनेवाला ध्याता कैसा होना चाहिए-यह बताते हुए योगीराज ने कहा - 'जिन स्वरूप थई...' ध्यानकाल में ध्याता को 'मैं राग-द्वेषरहित हूँ, ऐसी अवस्था प्राप्त करनी चाहिए। यानी ध्यान के समय मन में सूक्ष्म भी रागद्वेष नहीं रहने चाहिए।
जिन [रागद्वेष विजेता बनने के लिए जिनेश्वर का ध्यान करना है। वह ध्यान तभी सफल बनता है, जब ध्यान करनेवाला मनुष्य, ध्यान करते समय जिन जैसा बन जायें! __ भिन्न-भिन्न दर्शनों को लेकर राग-द्वेष का परिहार करने की सुन्दर प्रक्रिया बताकर, 'जिन' बनने का दिग्दर्शन कराया है, श्री आनन्दघनजी ने । आत्मावादियों को दर्शनों के वाद-विवाद में उलझने की जरूरत नहीं है। जिनेश्वरदेव में सभी दर्शनों की संवादिता सिद्ध कर दी! ___षड्दर्शनों का सामान्य भी अध्ययन होगा तो ही इस स्तवना में आनन्द मिलेगा। सभी दर्शनों की सामान्य रूपरेखा समझ लेनी चाहिए। हालाँकि तेरे मन में आत्मस्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताओं कि उलझन है ही नहीं, इसलिए षड्दर्शनों के ज्ञान के बिना तेरा आत्मविकास रुकने वाला नहीं है। फिर भी ज्ञान प्राप्त तो करना ही चाहिए।
चेतन, अब आनंदघनजी ‘समय-पुरुष' के छह अंग बता रहे हैंचूर्णि भाष्य सूत्र नियुक्ति वृत्ति परंपर-अनुभव रे समयपुरुषनां अंग कह्यां ए, जे छेदे ते दुर्भव रे...
चेतन, जब श्रमण भगवान महावीर स्वामीने 'धर्मतीर्थ' की स्थापना की, उन्होंने अपने मुख्य ११ शिष्यों को [गणधरों को] त्रिपदी' दी'उप्पनेइ वा धुवेइ वा विगमेइ ता' __ 'विश्व के प्रत्येक द्रव्य में उत्पत्ति-स्थिति और नाश-ये तीन तत्त्व रहे हुए हैं।' महान् प्रज्ञावंत गणधरों ने इस त्रिपदी के आधार पर तुरत ही सूत्रात्मक शास्त्रों की रचना कर दी।
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