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पत्र २२
१८६ धारा, ज्ञानी गुरु के समागम के बिना कैसे पी जाय? यानी 'चार्वाकदर्शन भी जिनेश्वर का पेट है-' यह तत्त्वविचार ज्ञानी गुरुदेव के अलावा कौन समझा सकता है? नास्तिक दर्शन भी एक अपेक्षा से जिनेश्वरों को मान्य है! यह बात जब गुरुदेवों से मुमुक्षु समझता है, तब उसको अमृतपान करने जैसा मधुर संवेदन होता है।
चेतन, चार्वाक दर्शन मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। अनुमान प्रमाण, शास्त्रप्रमाण वगैरह प्रमाणों को नहीं मानता है। 'पेट' भी वैसा ही है न! पेट भी प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। मात्र बातों से पेट नहीं भरता है! पेट को तो प्रत्यक्ष भोजन चाहिये। तृप्ति का अनुभव चाहिए! ___ 'आत्मानुभव के बिना सब झूठा है...' एक अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है। आत्मा की बातें करने से, चर्चा करने से कोई फायदा नहीं है। आत्मानुभव होना चाहिये । अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण है। आत्मानुभव से ही आत्मा को सच्ची तृप्ति होती है। जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे... अक्षरन्यास-धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे...
जैनदर्शन, जिनेश्वरदेवों का अति उत्तम अंग है, यानी मस्तक है। अंतरंग यानी आध्यात्मिक, बहिरंग यानी शारीरिक । जैनदर्शन जिनेश्वर का शारीरिक दृष्टि से भी उत्तम अंग है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी उत्तम अंग है। __मस्तक की जगह जैनदर्शन को स्थापित करना चाहिए। और इस प्रकार, दो पैरों में सांख्य और योग का, दो हाथों में बौद्ध और मीमांसक का, पेट पर चार्वाक का और मस्तक पर जैनदर्शन का न्यास [स्थापना] करना चाहिए। उसउस दर्शन के अक्षरों का न्यास करके पूर्ण पुरुष की आराधना करनी चाहिए।
चेतन, गाथा में 'आराधे धरी संगे रे...' ऐसा प्राचीन पुस्तक में छपा है, परन्तु मुझे यह ठीक नहीं लगता है 'आराधे धरी उमंगे रे...' ऐसा ठीक लगता है। प्राचीन हस्तप्रत से स्तवन लिखते समय भूल हो सकती है | पूर्ण पुरुष के शरीर में, दर्शन का अक्षरन्यास करनेवाला आराधक उमंग धारण करता हुआ, पूर्ण पुरुष की आराधना करता है।' अर्थ भी इस प्रकार ठीक लगता है।
जिनेश्वर जैसे पूर्ण पुरुष में सभी दर्शनों का न्यास करने से 'यह मिथ्यादर्शन और यह सम्यग्दर्शन', ऐसा भेद नहीं रहता है आराधक मनुष्य के मन में| राग-द्वेष की परिणति मंद-मंदतर होती जाती है।
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