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पत्र २१
१७९ चेतन, कितनी अच्छी बात कही है, योगीराज ने! जिसको आत्मा का शुद्ध स्वरूप पाना है, जिसको चित्तसमाधि पाना है, उनको भिन्न-भिन्न मतों की बातों में उलझना नहीं है, उनको तो आत्मध्यान में ही डूबना है। दुनिया को भूलना है' आत्मध्यान में डूबना है। मुमुक्षु को वादविवादों से दूर रहना चाहिए | वाग्जाल बीजं सहु जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे.... __सभी वाद-विवादों को [बीजुं सहु] मुमुक्षु वाणी विलास [वाग्जाल] जानता है। एक मात्र आत्मतत्त्व का ही मन में चिन्तन करता [चावे] है।
अनेकान्तदृष्टि से आत्मा का 'नित्यानित्य' स्वरूप जान कर विशुद्ध आत्मस्वरूपमें निमग्न होना चाहिए | चर्चा करने से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं होता है। आत्मध्यान करने से आत्मानन्द की प्राप्ति होती है। यह विवेक है। जेणे विवेक धरी ए पख ग्रहियो ते तत्त्वज्ञानी कहिये, श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो आनन्दघन-पद लहिये..
वही तत्त्वज्ञानी है कि जो विवादों से पर होकर, आत्मध्यान करने का पक्ष [बात] ग्रहण करता है।
'द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य है, पर्यायदृष्टि से आत्मा अनित्य है, यह विवेक धारण कर, मुमुक्षु को आत्मध्यान में लीनता प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा मुमुक्षु ही सही रूप में तत्त्वज्ञानी है।
हे मुनिसुव्रतस्वामी! यदि आप कृपा करें और मुझे ऐसा तत्त्वज्ञानी बना दें.... तो आनन्दघन-पद [मोक्ष] मैं भी पा लूँ!
चेतन, इतनी बातें समझ लेना कि १. आत्मा है, २. आत्मा नित्य है, ३. आत्मा कर्म बाँधती है, ४. आत्मा कर्म के बंधन तोड़ सकती है, ५. आत्मा कर्म भोगती है और ६. कर्म के बंधन तोड़ने के उपाय भी है।
आत्मा लोकव्यापी भी है और शरीरव्यापी भी है। आत्मा एक है और अनेक भी है। यह सब जान कर आत्मविशुद्धि का प्रयत्न करना चाहिए! जीवन चर्चाओं में, वाद-विवादों में ही पूरा नहीं हो जाना चाहिए | तू आत्मस्वरुप की रमणता करने का संकल्प करें-यही मंगलकामना ।
- प्रियदर्शन
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