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पत्र १८
१५२ राग-द्वेष से भरा हुआ मन कभी भी स्थिर.... निश्चल और विशुद्ध नहीं हो सकता है। अल्प समय के लिए, कोई विशेष प्रक्रिया के द्वारा मन को विचारशून्य कर देना, वह मन का वशीकरण नहीं है। जब उस प्रक्रिया का प्रभाव नष्ट होगा, पुनः मन चंचल-अस्थिर बन जायेगा।
आनन्दघनजी भगवान कुंथुनाथजी को कहते हैंमनडुं दुराराध्य तें वश आण्युं तें आगमथी मति आj, आनन्दघन प्रभु! माहलं आणो, तो साचुं करी जाणु....
हे आनन्दघन भगवंत! 'जिस मन को दुनिया का कोई भी मनुष्य या देव वश नहीं कर सकता है, वैसे दुराराध्य मन को आपने वश किया था, मनोजय प्राप्त किया था,' ऐसा मैंने आगम-ग्रन्थों में पढ़ा है। आगम ग्रन्थों के माध्यम से मैंने जाना [मति आणुं] है। परंतु.... मैं इस बात पर [आप ने मन पर विजय पायी है वह विश्वास कैसे कर लूँ? ___ मेरे मन को मैं वश कर सकूँ, मैं मनोजय कर सकूँ-वैसी कृपा आप मेरे ऊपर करें, तो मैं मान लूँगा कि आपने मनोजय किया है। आप मनोजयी बने हैं तो मुझे भी मनोजयी बना सकते हैं भगवंत! आप 'जिणाणं जावयाणं' हो प्रभु! आप विजेता है, दूसरों को विजेता बनानेवाले हो । मुझे विजेता बनायेंगे तो ही मैं आपको विजेता मानूँगा!
चेतन, यहाँ जिसको आनन्दघनजी ने 'मन' कहा है, वह रागी-द्वेषी मन समझना | मन को वश करना यानी राग-द्वेष पर विजय पाना । परमात्मा की प्रीति-भक्ति से एवं उनकी आज्ञाओं के पालन से अवश्य ही मनुष्य मनोजयी बन सकता है, राग-द्वेष का विजेता बन सकता है।
- प्रियदर्शन
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