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पत्र १८
१५०
सोचता हूँ-‘क्या वह सज्जन है?' नहीं, सज्जन भी नहीं लगता! चूँकि उसने मुझे बहुत नुकसान पहुँचाया है। मैं उसको सज्जन तो कह ही नहीं सकता । हर बात में वह अपनी टांग अड़ाता है .... और वहाँ से खिसक जाता है! मन के विषय में मेरा यह बड़ा आश्चर्य [ अचरिज ] है ।
श्री आनन्दघनजी का मन के प्रति यह घोर आक्रोश है । मन ठगता रहता है आत्मा को, परंतु आत्मा को खयाल नहीं आता है कि 'मेरा मन मेरे साथ ठगाई कर रहा है।' यानी आत्मा को कभी - कभी Missguide कर देता है ।
वैसे कभी सज्जन भी बन जाता है । सज्जन वास्तव में नहीं है, परंतु सज्जनता का स्वांग रचता है। थोड़े समय के लिए आत्मा को भ्रमणा हो जाती है- 'मेरा मन मुझे कितनी अच्छी राय देता है ।'
गलत रास्ते पर आत्मा को भटका देता है ..... और खुद वहाँ से दूर चला जाता है। कष्ट आत्मा को सहने पड़ते हैं । कभी-कभी मन को उपालंभ देता हूँ, परंतु वह सुननेवाला कहाँ है?
जे जे कहुं ते कान न धारे, आप मते रहे कालो...... र - पंडितजन समजावे, समजे न मारो सालो.... सुर-नर
जैसे कि मन को कान है.... फिर भी वह सुनता नहीं है.... ऐसी कल्पना कर, योगीराज कहते हैं - मेरा मन उद्धत [ मारो सालो ] है । जो-जो बात मैं उसको कहता हूँ वह सुनता हीं नहीं [ कान न धारे] वह तो अपनी इच्छा [आप मते] के अनुसार ही रहता है। गंवार [ कालो] है वह ।
देव [सुर] भी मन को समझा सकते नहीं । देवों को भी वह नचाता है। मनुष्य [र] को तो वह धारता ही नहीं । विद्वानों की बात को भी ठुकरा देता है । अब क्या किया जाय ? मैंने भी उसको समझाना सरल समझा था.... परंतु नहीं समझा सका उसको ।
में जाण्युं ए लिंग नपुंसक सकल मरद ने ठेले
बीजी वाते सथरथ छे नर, एहने कोई न झेले....
मैंने शब्दकोश में पढ़ा कि मन का लिंग 'नपुंसक' है [गुजराती भाषा में] । पुरुष के सामने वह कमजोर होगा। चूँकि पुरुष 'पुंलिंग' है । पुंलिंग से नपुंसक लिंग कमजोर होता है, ऐसा समझकर उसको समझाने चला..... परंतु उसने
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