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पत्र १७
१३७ करना चाहिए | उग्र क्रोध-मान-माया-लोभ का त्याग कर, क्षमा-नम्रता-सरलता और निर्लोभतारूप सात्त्विक भावों के किले [साल] में सुरक्षित रहना चाहिए |
चेतन, मन के तीन प्रकार के विचार बताये गये हैं-तामसिक, राजसिक और सात्त्विक। प्रस्तुत में कवि ने राजसिक विचारों का समावेश तामसी विचारों में किया हुआ है। हालाँकि राजसिक प्रकृति के लोग ज्यादा पापविचारोंवाले नहीं होते हैं, फिर भी शान्तियात्रा में वे विचार भी बाधक बनते हैं। राजसिक विचार प्रवृत्त्यात्मक होते हैं, सात्त्विक विचार निवृत्त्यात्मक होते हैं | बाह्य प्रवृत्तियों में अशान्ति रहेगी ही। ज्ञान-ध्यान की प्रवृत्ति आन्तरिक होती है, इसलिए उसका समावेश निवृत्ति में किया गया है।
तामसिक प्रकृति के लोग अशान्त ही बने रहते हैं, इसलिए कवि ने तामसिक वृत्ति को मिटाने का उपदेश दिया है। इस प्रकार सद्गुरु का आलंबन लेना ‘क्रियावंचक योग' होता है।
'योगदृष्टि समुच्चय' ग्रन्थ में आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने कहा हैक्रियावंचकयोग: स्यान्महापापक्षयोदयः' घोर पापों का [कर्मों का नाश होने पर ही क्रियावंचक योग प्राप्त होता है। क्रियावंचक योग का फल है 'फलावंचक योग'। फलविसंवाद जेहमां नहीं, शब्द ते अर्थसंबंधी रे....
सद्गुरु का आलंबन लेकर, तामसी वृत्ति का त्याग कर, सात्त्विक भावों को आत्मसात् कर, विविध धर्मक्रियायें करनेवालों को, क्रिया के अनुरूप फल मिलता ही है। जैसे शब्द का अर्थ के साथ संबंध होता ही है, वैसे क्रिया का फल होता ही है। फल नहीं मिलने की शंका [फल विसंवाद] करने की ही नहीं
शब्दों के अर्थ करने में सकल नयवाद व्यापक होता है। यानी नयवाद का सहारा लेकर ही शब्दों का अर्थ किया जाता है। वैसे नयदृष्टि से हर क्रिया का फल सोचना चाहिए। कोई क्रिया का प्रत्यक्ष फल भौतिक हो सकता है, परोक्ष फल मोक्ष होता है। सकल नयवाद व्यापी रह्यो, ते शिवसाधन संधि रे....
नयदृष्टि से हर शुद्ध क्रिया का फल सोचने के लिए योगीराज कह रहे हैं। मात्र निश्चयनय से नहीं सोचना है, मात्र व्यवहारनय से फल का विचार नहीं करना है। दूसरे नयों से सापेक्ष रहते हुए फल का विचार किया जाता है।
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