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पत्र १६
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धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म....
जगत में सभी लोग धर्म.... धर्म.... करते हुए फिर रहे हैं। हमारा धर्म ही सही है....' का नारा लगाते फिर रहे हैं.... परंतु कौन जानता है धर्म का मर्म? कौन समझता है धर्म का रहस्य? कोई नहीं! मात्र 'धरम.... धरम' की रटंत लगा रखी है।
धर्म का मर्म बताते हुए योगीराज कहते हैंधर्म जिनेश्वर-चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म....
जिनचरणों को ग्रहण करना-यही धर्म का मर्म है। जिनचरणों को ग्रहण करना यानी जिनाज्ञा का आदर करना, यथाशक्ति पालन करना। प्रतिपल जिनाज्ञा के प्रति जाग्रत बन कर जीना, यह धर्म है।
चेतन, ऐसी प्रतिपल की आत्मजागृति न तेरी रह सकती है, न मेरी रह सकती है। ऐसी जागृति रहती है, सातवें गुणस्थानक पर रहे हुए अप्रमत्त मुनि
की!
अप्रमत्त अवस्था में पापकर्म एक भी नहीं बंधता है। धर्म का यह अप्रतिम फल है। नये कर्मों का बंधन रुक जाय, पुराने कर्मों की निर्जरा होती रहे और यदि कुछ कर्मबंध होता है [योगजनित] तो पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म का बंध होऐसी यह अवस्था होती है, आत्मा की। कहने का तात्पर्य यह है कि जिससे पापकर्मों का बंधन रुक जाय, वह ही सही धर्म है।
ऐसी अप्रमत्त आत्मदशा कैसे प्राप्त होती है, यह बताते हैंप्रवचन-अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान....
सदगुरु की कृपा हो जाय और शिष्य की आँखों में हृदयरूपी आँखें] प्रवचन-अंजन करें तो अप्रमत्त आत्मदशा प्राप्त हो सकती है। चूंकि उस अंजन से हृदयदृष्टि खुल जाती है और आत्मा में अनन्त गुणों का निधान देख लेती है। निधान पर दृष्टि स्थिर हो जाती है। इससे, बाह्य दुनिया में मन नहीं जाता है। बाह्य दुनिया में मन नहीं जाने से प्रमाद का प्रवेश नहीं हो पाता है।
परंतु महत्वपूर्ण है, सद्गुरु का प्रवचन-अंजन। प्रवचन यानी जिनेश्वरवीतराग के वचन | सदगुरु की कृपा से ही ये वचन प्राप्त होते हैं और आत्मा में परिणत होते हैं।
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