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पत्र १६ । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० जिनचरणों को ग्रहण करना-यही धर्म का मर्म है। प्रतिपल जिनाज्ञा के
प्रति जाग्रत बनकर जीना, यह धर्म है। ० आन्तरचक्षु से परमात्मा के दर्शन होने पर, परमात्मा की ओर दौड़ने के
लिये योगीराज प्रेरणा करते हैं। ० 'जगदीश की ज्योति' का अर्थ है, सम्यग्दर्शन | राग-द्वेष की प्रबलता
कम हुए बिना सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है। ० राग और मोह की प्रबलता, आध्यात्मिक संपत्ति को देखने ही नहीं
देती। रागदृष्टि और मोहदृष्टि से आत्मा के गुण नहीं दिखाई देते। ० प्रेम और भक्ति से भरा हुआ मन, श्रद्धा और शरणागति के भावों से भरा
हुआ मन, सुन्दर मन है। ऐसा मन ही परमात्मा के चरणकमल के पास
रह सकता है। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १६
श्री धर्मनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनन्द!
श्री आनन्दघनजी की ये स्तवनायें अच्छे शास्त्रीय रागों में गायी जा सकती हैं। यदि तू अकेला-अकेला भी एकान्त कमरे में.... कि जहाँ तूने सुंदर जिनप्रतिमा स्थापित की है-वहाँ बैठकर ये स्तवन गायेगा, तुझे अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। अब थोड़ा-थोड़ा भी अर्थबोध तो तुझे हो ही गया है! विशेष अर्थ तो गाते-गाते कभी प्रस्फुटित होता जायेगा।
परमात्मा के प्रति प्रीति और भक्ति के फूल खिलते रहेंगे और परमात्मा की आज्ञाओं का बोध स्पष्ट होने पर अनेक शुभ भावों के फल तुझे मिलते जायेंगे।
श्री धर्मनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से कविराज ने यहाँ 'धर्म' की परिभाषा की है। बहुत अच्छी परिभाषा की है। धर्म का फल भी अभिनव बताया है। परंतु धर्म की यह परिभाषा और फल आत्मा की उच्चतम अप्रमत्त अवस्था की दृष्टि से बताया है-यह बात याद रखना।
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