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पत्र १३
१०२ आत्मज्ञानी होते हैं, वे ही सच्चे अर्थ में श्रमण हैं। जिनको ऐसा आत्मज्ञान नहीं होता है, वे मात्र मुनिवेशधारी हैं। उन्होंने मात्र साधु का वेश पहना हुआ है, भावसाधुता उनमें नहीं होती है।
हालाँकि द्रव्य-साधुता भी व्यर्थ नहीं होती है। उनका लक्ष्य भावसाधुता पाने का होना चाहिए। नयों की अपेक्षा से आत्मज्ञान प्राप्त करने का लक्ष्य होना चाहिए | सभी श्रमण तीव्र मेधावी नहीं होते हैं। बहुत कम श्रमण मेधावी होते हैं। जो मेधावी होते हैं, वे ही नयवाद को समझ पाते हैं। जो मेधावी नहीं होते हैं, वे नयवाद नहीं समझ सकते। तो क्या वे मात्र द्रव्यलिंगी कहलायेंगे? नहीं, उनमें यदि आत्मज्ञान पाने की चाह है.... अथवा आत्मज्ञान का फल, जो कि विरति का परिणाम है, वह प्राप्त हो गया है, तो वे भाव-श्रमण हैं | वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दघन-मत संगी रे....
जो ज्ञानी पुरुष, वस्तु के सभी स्वभावों को, सभी धर्मों को यथार्थ रूप में जानते हैं और बताते हैं, वे ही आत्मस्वरूप के चिंतन में लीनता पाते हैं। यानी वे आत्माएँ ही मोक्षमार्ग पर प्रगति कर सकती हैं।
चेतन, इस स्तवना में 'नयवाद' की प्रमुख बात कही गई है। मात्र 'मैं आत्मा हूँ.... मैं आत्मा हूँ....' इतना रटने से आत्मज्ञान नहीं पा सकते हैं। भिन्न-भिन्न नयों की दृष्टि से आत्मा का स्वरूप समझना होगा। आत्मविषयक विपुल ज्ञान तभी प्राप्त हो सकेगा।
तू कब पढ़ेगा आत्मवाद को? कब पढ़ेगा नयवाद को? और कब पढ़ेगा कर्मवाद को? प्रति वर्ष यदि १-१ महीना इसके लिए निकाल सके.... तो अच्छा ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
तुझे आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो-ऐसी मंगल कामना करता हूँ।
- प्रियदर्शन
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