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पत्र १२ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
० जो निष्कामी होते हैं वे ही आत्मरामी होते हैं। निष्कामी और आत्मलक्षी ___ आत्मायें ही 'निज-स्वरूप' पाने का पुरुषार्थ कर सकती हैं। ० आत्मगुणों के आविर्भाव के लक्ष्य से जो उचित धर्मक्रिया हो, वह
भावअध्यात्म है। वैसे, धर्मक्रिया सापेक्ष आत्मलक्ष्य बना रहे, वह भी भावअध्यात्म है। न लक्ष्य की उपेक्षा, न क्रिया की उपेक्षा। ० कहे जाने वाले सभी अध्यात्म के शास्त्रों में अध्यात्म होता ही है-ऐसा
मानना नहीं। किस ग्रन्थ में से कौन-सी बात ग्रहण करनी चाहिए और
कौन-सी बात छोड़ देनी चाहिए-यह तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर रहेगा। ० अध्यात्म का मार्ग ही पूर्णता पाने का सही मार्ग है।
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पत्र : १२
श्री श्रेयांसनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। स्वाध्याय में रसवृत्ति प्रबल बनती जा रही है, जानकर आनन्द, आनन्द! ___ श्री श्रेयांसनाथ भगवंत की स्तवना में आनन्दघनजी भक्तिभाव में झुम रहे हैं। चूंकि उनका हृदय परमात्मप्रेम से भरपूर था! उनके हृदयसिंहासन पर परमात्मा ही बिराजित थे। उनके होठों पर परमात्मा की ही स्तवना होती थी।
जिस व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान होता है... उसको परमात्मा के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होगा ही! चूँकि परमात्मस्वरूप जो है, वह उसका खुद का ही स्वरूप है। परमात्मा से प्रेम करना यानी अपनी आत्मा से...विशुद्ध आत्मा से ही प्रेम करना है।
आत्मा, अध्यात्म के मार्ग पर चलती हुई...पूर्ण अध्यात्म को प्राप्त कर, परमात्मदशा को प्राप्त करती है, इसलिए आनन्दघनजी ने 'अध्यात्म' के विषय में गहरा चिन्तन किया और श्रेयांसनाथ की स्तवना के माध्यम से प्रस्तुत किया।
पहले पढ़िये स्तवना को
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