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सोमनाथ महादेव प्रगट हुए
गुरुदेव को संतोष हुआ। राजा भी आनंदित हुआ ।
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सोमनाथ के मंदिर का कार्य जोर-शोर से चलने लगा। राजा पाटन से लाखों रुपये भेजने लगा ।
दो साल में मंदिर का कार्य पूरा हो गया । कुमारपाल की खुशी समुद्र के ज्वार की भाँति उछलने लगी। राजा ने राजसभा में खुले मन से ... जी भरकर आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरिजी की प्रशंसा की । यह सुनकर राजपुरोहित इर्ष्या से जलने लगे। उसके मन में हेमचन्द्रसूरिजी के प्रति द्वेष था...नफरत थी । उसे डर था कि हेमचन्द्रसूरिजी के प्रभाव से राजा जैन धर्म का अनुयायी हो जायेगा तो? राजा ब्राह्मणधर्म का अनुयायी ही रहना चाहिए । परन्तु हेमचन्द्रसूरिजी के प्रभावी एवं प्रतापी व्यक्तित्व के सामने उसकी दाल गलती नहीं थी ! वह मन में ही कुढ़कर रह जाता था ।
पर आज उसे अपने दिल में घुलता जहर उगलने का मौका मिल गया । चूँकि राजसभा में हेमचन्द्रसूरिजी उपस्थित नहीं थे। वह खड़ा होकर यथातथा बकने लगा।
‘महाराजा, यह जैनाचार्य विश्वसनीय नहीं है... यह महाधूर्त है... मीठीमीठी बातें करके आपको लपेटना चाहता है... वास्तव में उसे आपके धर्म के प्रति द्वेष है... आदर नहीं है !
यदि आपको मेरी बात पर भरोसा नहीं होता हो तो आप उस हेमाचार्य को आपके साथ सोमनाथ की यात्रा करने के लिए कहें... वे आयेंगे नहीं... और सोमनाथ के दर्शन करेंगे नहीं। सोमनाथ को हाथ जोड़ेंगे नहीं!'
राजा ने कुछ अनमनेपन से कहा :
'ठीक है... मैं उन्हें सोमनाथ की यात्रा में साथ चलने के लिए निमन्त्रण दूँगा । ' राजसभा पूरी हो गई ।
राजपुरोहित की बात से राजा का मन बेचैन हो उठा था। वे सीधे ही उपाश्रय में गुरुदेव के पास गये। गुरुदेव को वंदना करके कहा :
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'गुरुदेव, सोमनाथ महादेव के
मंदिर का कार्य पूरा हो गया है। मेरी इच्छा है कि मैं एक बार अब सोमनाथ की यात्रा करूँ... आप मेरे साथ यात्रा में पधारेंगे ना ?