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सोमनाथ महादेव प्रगट हुए
६२ बोलते-बोलते राजा कुमारपाल की आँखें गीली हो उठीं। उनका हृदय भर आया।
आचार्यदेव ने कहा : __'कुमारपाल! तू क्यों इतना व्यथित हो रहा है? तू कृतज्ञ ही है! कृतज्ञों में श्रेष्ठ है। उपकारों का बदला चुकाने का अवसर तो अब आ रहा है!
तू मुझे राज्य स्वीकार करने को कह रहा है... परन्तु तेरी अपूर्व भक्ति के सामने राज्य की क्या कीमत है? तेरी अनुपम भक्ति ही अमूल्य है!
और फिर राजन्! हम तो निर्मोही...निर्लोभी... और चारित्रवान् जैन साधु हैं। राज्य हो भी तो हम उसका त्याग कर सकते हैं... परन्तु स्वीकार नहीं कर सकते! यदि हम राज्य ग्रहण करें तो हमारा धर्म नष्ट हो जाए!
इसलिए यदि सचमुच तुझे उपकारों का बदला चुकाना ही है तो तू तेरा आत्महित कर। इसके लिए तू जिनेश्वर देव के धर्म को स्वीकार कर | श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर | तूने इससे पूर्व मुझे वचन दिया हुआ है! तेरे उस वचन को निभा। उस वचन को यथार्थ करके दिखा। महापुरुषों के वचन मिथ्या नहीं होते हैं।'
आचार्यदेव का उपदेश सुनकर राजा ने कहा : 'ओ मेरे उपकारी गुरुदेव!
जैसा आप कहते हैं... कहेंगे, वैसा ही मैं करूँगा! आप ही के संपर्क में, सहवास में रहने की मेरी इच्छा है। आपके सत्संग में कुछ तो तत्त्वज्ञान अवश्य पा सकूँगा।
इस तरह आचार्यदेव और कुमारपाल के संबन्धों का जन्म हुआ और वह संबंध मृत्यु पर्यन्त बना रहा। कुछ उतार-चढ़ाव जरुर आये पर भीतरी रिश्ते का रंग कभी फीका नहीं पड़ा!
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