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गत जनम की बात
१५१ थी। नरवीर तो ओझल हो गया... पर नरवीर की पत्नी को धनदत्त ने घेर लिया। तलवार का प्रहर करके बड़ी क्रूरता से उसने उसके पेट को चीर दिया... उसके अजन्मा शिशु जो गर्भरूप में था... को पत्थर की चट्टान पर पटक-पटककर मार डाला | नरवीर की हवेली को आग लगा दी।
उसने बदला लेकर अपने आप को बहादुर माना। नरवीर के अड्डे में से ढेर सारी धन संपत्ति लेकर, बैलगाड़ियों में भरकर वह वापस गया | मालवे के राजा के पास जाकर अपनी बहादुरी की प्रशंसा करते हुए लड़ाई का ब्यान किया। नरवीर की गर्भवती पत्नी को कैसे मारा, गर्भस्थ शिशु की कैसे हत्या की, वह भी कह दिया... अपनी ताकत की प्रशंसा करते हुए।
राजा दयालु था। वह काँप उठा। सिंहासन पर से खड़े होकर राजा ने धनदत्त से कहा :
'अरे दुष्ट व्यापारी, तू भयंकर निर्दय आदमी है। तेरी दुश्मनी थी नरवीर से, और तुने उसकी निर्दोष औरत और अभी जिसका जन्म भी नहीं हुआ था... वैसे गर्भस्थ शिशु की क्रूरतापूर्ण हत्या कर दी? बहशीपन की भी हद होती है। ऐसा पाप तो क्रूर चंडाल भी नहीं करेगा। तू यहाँ से इसी वक्त चला जा अपना काला मुँह लेकर। फिर कभी इधर का रुख भी मत करना।'
राजा ने धनदत्त का सारा धन जब्त कर लिया। उसे दुत्कार कर देशनिकाला की सजा सुनाई। धनदत्त अकेला - भटकता हुआ एक जंगल में जा पहुंचा। उसके मन में अपने किये हुए घोर पापों का तीव्र पश्चाताप ज़गा। उसने उग्र तपश्चर्या की। उसकी मृत्यु हुई। धनदत्त की आत्मा ने ही सिद्धराज के रूप में जन्म लिया । गर्भस्थ शिशु की हत्या के पाप ने उसे गुजरात का सम्राट होते हुए भी निःसन्तान रखा।
० ० ० एक ध्यान से सुन रहे राजा कुमारपाल की उत्सुकता मुखर हो उठी : 'प्रभो, फिर उस डाकू नरवीर का क्या हुआ?' 'आचार्यदेव ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा :
वह नरवीर थका हारा एक पेड़ के नीचे बैठकर सोच में डूब गया। उसके दिल में बदले की आग धधक रही थी। गुस्से का लावा उफन रहा था। पर वह बेबस था । उस का एक भी साथी जिन्दा नहीं रहा था। उसकी प्राण प्यारी पत्नी और उसका अजन्मा बच्चा... जिसकी किस्मत में दुनिया को देखना भी
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