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पाँच प्रसंग
१४६ की जाती हो... मर्यादा नहीं रहती हो... वैसे राज्य में आश्रित रहकर जीना कौन पसन्द करेगा?'
चिन्ता से व्याकुल हो उठे राजा ने पूछा :
'आप यह क्या कह रहे है गुरुदेव? मेरे राज्य में किसी ने आपका अपमान किया है? किसी दुष्ट आदमी ने आप को पीड़ा पहुँचायी है? प्रभु... आप मुझे कहिए... मैं उस पापी को कड़ी सजा करूँगा... परन्तु आप मुझे छोड़कर जाने की बात न करें। मेरा राज्य छोड़कर जाने का न सोचें ।' __ 'राजन्, जिस राजा के राज्य में साध्वी के मृतदेह की मर्यादा का भी खयाल नहीं किया जाता हो... वैसे राज्य में रहना हम पसन्द नहीं करते। वैसे राज्य में हमें क्यों रहना चाहिए? क्या चाहिए हमें? भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं... जीर्ण वस्त्र पहनते हैं... जमीन पर लेट जाते हैं... हमें राजाओं से लेना देना भी क्या है?'
राजा ने गद्गद् स्वर में कहा : 'गुरुदेव, आपको मेरी आवश्यकता नहीं है... परन्तु मुझे आप की अत्यधिक जरूरत है। परलोक का पुण्य-धन कमाने के लिए मैं आप के साथ मित्रता चाहता हूँ| आपका पवित्र सानिध्य चाहता हूँ।'
राजा की नम्रता... सरलता... मैत्री ने आचार्यदेव के दिल को मोम सा मुलायम बना डाला। उन्होंने पाटन में हुई घटना का ब्यान किया। राजा को काफी दुःख हुआ। भविष्य में अब कभी ऐसी दुर्घटना नहीं होगी वैसी निश्चितता दी। ___ 'गुरुदेव... आप जब भी चाहें... मेरे महल पर पधार सकते हैं... आपको कोई राजपुरुष या सैनिक न तो रोकेंगे, न... कोई टोकेंगे।'
राजा एवं आचार्य महाराज की मैत्री विशेषरुप से दृढ़ हुई। राजा अक्सर आचार्यदेव के गुणों की प्रशंसा किया करते थे।
० ० ० राजपुरोहित आमित्र के मन में इर्ष्या की आग छुपी-छुपी जल रही थी।
हेमचन्द्रसूरिजी के बढ़ते जाते मान-सम्मान देखकर उसके पेट में तेल गिरने लगा। वह पुरोहित हेमचन्द्रसूरिजी को अपमानित करने की फिकर में घूमने लगा।
एक दिन भरी राजसभा में राजा ने हेमचन्द्रसूरिजी के ब्रह्मचर्य गुण की जी भरकर प्रशंसा की। उस समय मौका पाकर पुरोहित ने अपनी भड़ास निकाली :
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