________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सच्ची सुवर्णसिद्धि
१३५
GS
२३. सच्ची सुवर्णसिद्धि
रात खामोश थी।
अंधेरे की चादर में सिमटे आकाश में असंख्य सितारे मद्धिम-मद्धिम से चमक रहे थे। ___ उपाश्रय के मध्यभाग में आये हुए चौक के किनारे पर आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी एक लकड़ी के खंभे का सहारा लेकर बैठे हुए थे। आधी रात बीत चुकी थी। फिर भी आचार्यदेव को नींद नहीं आ रही थी।
उनके मन में अचानक एक विचार कौंध गया था और उसी विचार के कारण उनकी आँखों में नींद का अतापता नहीं था।
विचार था राजा कुमारपाल का! जिस तरह कुमारपाल के दिल में आचार्यदेव बसे हुए थे वैसे ही आचार्य भगवंत के हृदय में कुमारपाल का स्थान था। _ 'कुमारपाल धर्म के कितने महान् कार्य कर रहा है... उसके अधीन अठारह प्रांतों में उसने अहिंसा का फैलाव किया... उसने हजारों जिनमंदिर बँधवाये... अनेक ज्ञानभण्डार बनवाये... और हजारो-लाखों दुःखी साधर्मिक जैनों को सुखी बनाये। __ पर उसकी भी कुछ मर्यादा है ना? राज्य की तिजोरी आज भरी हुई है तो कल खाली भी हो जाती है... उसने कल ही मुझ से कहा था... 'गुरुदेव, कभी पैसों की कमी महसूस होती है...' मैंने पूछा 'गुजरात के राजा को पैसों की कमी?' उसका कहना था...
'जी हाँ...प्रजा के अधिकांश कर माफ कर दिये गये हैं...| जैनों से तो एक पैसे का भी कर नहीं लिया जाता है...। तब पैसे आयेंगे कहाँ से? वह तो परमात्मा की कृपा है कि नगर श्रेष्ठी लोग स्वेच्छया लाखों-लाख रुपये भेंटसौगात के रुप में दे जाते हैं... और राज्य के खजाने में बेशुमार सोने की ईटें पड़ी हुई हैं... इसलिए इतने सत्कार्य संभव हो सके..., लेकिन अब तो सोना भी काफी काम में आ चुका है...।' ___जो बात थी... वह उसने दिल खोलकर कह दी! ऐसे परोपकार परायण राजा के पास यदि अखूट संपत्ति का खजाना हो तो वह दुनिया में न तो किसी को गरीब रहने दे...नहीं किसी को दुःखी! एक भी गाँव जिनालय के बगैर का नहीं हो!'
For Private And Personal Use Only