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प्रवचन-८१ शिक्षा कहाँ मिलती है? और, ऐसी शिक्षा के अभाव में गृहस्थ जीवन विक्षुब्ध
और विषमताओं से पूर्ण बन गया है। त्रिवर्ग का परस्पर कोई सामंजस्य ही नहीं दिखता है। कोई अर्थ-धर्म की उपेक्षा कर कामासक्त बन रहा है, कोई धर्म-काम की उपेक्षा कर मात्र अर्थोपार्जन में लगा हुआ है। इससे मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में अशान्ति पैदा होती है।
धर्म की उपेक्षा कर, मात्र अर्थपुरुषार्थ और मात्र कामपुरुषार्थ में लगनेवालों को कैसे नुकसान होते हैं, ये आपको बताये हैं। आज जो बात बताना चाहता हूँ वह यह कि अर्थ और काम की उपेक्षा कर मात्र धर्म करनेवाले गृहस्थ को कैसे-कैसे नुकसान होते हैं। अर्थ और काम की उपेक्षा से नुकसान : ___ अर्थ और काम की उपेक्षा करनेवालों के लिए गृहस्थ जीवन है ही नहीं, उनको तो संसार का त्याग करने का है, साधु बन जाने का है! गृहस्थ जीवन जीना और अर्थ-काम की उपेक्षा करना...यह सर्वथा अनुचित बात है। हाँ, अर्थ-काम की आसक्ति नहीं होनी चाहिए, परन्तु परिवारपालन के लिए अर्थोपार्जन तो करना पड़ेगा ही। ___ मान लें कि आपका परिवार नहीं है, आप अकेले हैं, फिर भी आपकी स्वयं की आजीविका के लिए आपको अर्थोपार्जन करना होगा। यानी आपको याचक बनकर नहीं जीना है। आप में अर्थोपार्जन करने की शक्ति है फिर भी आप आलस्य करते हो अथवा दिन-रात धर्मक्रियाएँ करते हो...परन्तु अर्थोपार्जन नहीं करते हो, किसी के आश्रित बनकर जीते हो, वह उचित नहीं है। हाँ, आपके पास पर्याप्त संपत्ति है और आप अर्थोपार्जन नहीं करते हो, तो चल सकता है।
हालाँकि वर्तमान काल में अर्थ-काम की उपेक्षा कर मात्र धर्मपुरुषार्थ करने वाले लाख में दो-चार मिलेंगे! सही बात है न? आज तो सर्वत्र यह देखने को मिलता है कि धर्म की उपेक्षा कर लोग अर्थ-काम में निमग्न हैं। फिर भी, कोई मनुष्य ऐसा नहीं सोचे कि 'अर्थ-काम की उपेक्षा कर धर्मपुरुषार्थ में सारा जीवन बिता दूँ!' इसलिए टीकाकार आचार्यश्री तीन पुरुषार्थ का सामंजस्य बताते हैं। अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ की उपेक्षा ही करना है तो साधु जीवन स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर बताया है। ___ सभा में से : समाज में कुछ लोग ऐसे हैं कि जिनको अर्थपुरुषार्थ करना है, परन्तु व्यवसाय ही नहीं मिलता है...नौकरी भी नहीं मिलती है, तो क्या करें?
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