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प्रवचन- ७७
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जिसके पास ज्यादा परिग्रह होगा उसको परेशान करनेवाले भी प्रायः ज्यादा ही मिलते हैं!
९. परिग्रह से ही सभी पाप पैदा होते हैं । पापों का ही निवासस्थान होता है परिग्रह । पैसे का पुजारी कौन-सा पाप नहीं करता है ? हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध... अभिमान ... वगैरह असंख्य पाप वह करता रहता है। परिग्रह की गाढ़ आसक्ति, पापों को पाप मानने भी नहीं देती है !
श्री रत्नमंडन गणी ने 'सुकृत सागर' ग्रन्थ में परिग्रह के ये अनिष्ट बताये हैं एक ही श्लोक में। याद रखने जैसा श्लोक है :
द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधिर्व्याक्षेपस्य सुहृन्मदस्य भवनं, ध्यानस्य कष्टोरिपुः । दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं, पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ।।
आचार्यदेव ने परिग्रह के नुकसान - अपाय बताये। उसके बाद 'परिग्रहपरिमाण व्रत' के लाभ बताते हैं :
'हे महानुभाव, यह व्रत, लोभरूप उद्धत हाथी के लिए अंकुश है। चाहे धनिक हो या दरिद्र हो, उनके लोभ को संयम में रखनेवाला यह व्रत है । अमर्याद लोभसमुद्र से तारनेवाला यह व्रत है। संतोष से जीनेवाले मनुष्य का लाभान्तराय कर्म टूटता है और अनायास उसे लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए परिग्रह-परिमाण व्रत लेना चाहिए । '
गुरुदेव की करुणानजर पेथड़शाह पर :
ऐसा उपदेश देने के बाद आचार्यदेव ने पास में ही खड़े पेथड़ का हाथ अपने हाथ में लिया। करुणामयी दृष्टि से उसके सामने देखा। आचार्यदेव सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे। उनकी दृष्टि पेथड़ के खुले हाथ पर पड़ी। हाथ की रेखाएँ देखीं। हाथ सुन्दर था। हाथ में जो रेखाएँ थीं वे भी स्पष्ट, अखंड और उत्तम थीं। पेथड़ के हाथ में ध्वज की रेखा थी, छत्र की रेखा थी, शंख और कमल की रेखाएँ थीं। स्वस्तिक भी था और मत्स्य की रेखा भी थी ।
गुरुदेव ने सोचा : 'इसको सत्ता और संपत्ति दोनों प्राप्त होंगे। यह लड़का बहुत बड़ा भाग्यशाली है । जिनशासन की भव्य प्रभावना करनेवाला होगा ।' गुरुदेव विचार में निमग्न थे।
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