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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-७७ ४७ है, उनकी प्रशंसा देवलोक के देव करते हैं। चूँकि समकित दृष्टि देव, छोटासा भी व्रत ग्रहण नहीं कर सकता है। व्रत उसे अच्छा लगता है।' एकेन्द्रिय जीव आहार (मुँह से) नहीं करते हैं, फिर भी उपवास का फल उनको नहीं मिलता है...चूँकि वे व्रत नहीं ले सकते हैं। वे अव्रती होते हैं | मन, वचन, काया से एकेन्द्रिय जीव एक भी पाप नहीं करते हैं, फिर भी 'अविरति' के कारण अनन्तकाल तक निगोद में रहते हैं। 'सभी अनर्थों का मूल 'अर्थ' है। अर्थ का परिग्रह है। इसलिए परिग्रह का प्रमाण निश्चित करना चाहिए। 'परिग्रह-परिमाण व्रत' लेना चाहिए। परिग्रह की मर्यादा बाँधनी चाहिए। यदि मर्यादा नहीं बाँधोगे तो लोभ बढ़ता ही जायेगा। तीव्र लोभ नरकादि दुर्गतियों में जीव को ले जाता है।' आचार्यदेव का उपदेश सुनकर, वहाँ जो श्रीमन्त श्रावक बैठे थे, वे 'परिग्रहपरिमाण व्रत' लेने लगे। किसी अभिमानी श्रीमन्त ने दरिद्रावस्थापन्न पेथड़ को देखा। पसीने से उसके फटे हुए वस्त्र दुर्गंध उगलते थे...| उस श्रीमन्त ने उपहास की भाषा में आचार्यदेव से कहा : 'गुरुदेव, इस पेथड़ को भी परिग्रहपरिमाण व्रत देना चाहिए...चूकि यह भी लखपति-करोड़पति होनेवाला है...भले, लाख वर्ष लग जायें ।' आचार्यदेव ने उस श्रीमन्त से कहा : 'महानुभाव, लक्ष्मी का गर्व करने जैसा नहीं है। लक्ष्मी कभी भी चली जा सकती है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी रास्ते के भटकते भिखारी हो जाते हैं और भिखारी राजा बन सकता है। किसी भी बात का गर्व करने जैसा नहीं है। अभिमान, मनुष्य के हित का नाश करता है।' वह उद्धत श्रीमन्त चुप हो गया। आचार्यदेव ने पेथड़ को प्रेम से कहा : 'हे भद्र, तू भी यह पाँचवा अणुव्रत स्वीकार कर ले। इहलोक और परलोक में सुख देनेवाला यह व्रत है।' पेथड़शाह ने व्रत लिया : पेथड़ ने कहा : 'गुरुदेव, जो लोग बहुत बड़े परिग्रही हों उनको यह व्रत लेना उचित है। मैं तो निर्धन हूँ... सरोवर में पानी ही न हो, तो पाल बाँधने से क्या फायदा?' गुरुदेव ने कहा : 'वत्स, सभी लोगों को अपने-अपने धन के अनुसार 'परिग्रह-परिमाण' व्रत लेना चाहिए। दूसरे विचारों को छोड़ दें और सम्यक्त्वसहित व्रत को ग्रहण करें।' For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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