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प्रवचन-७७
४४ मैंने आप लोगों को अनेक बार कहा है कि आप नव तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लो। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष-इन तत्त्वों का ज्ञान होना ही चाहिए, आप लोगों ने प्राप्त किया? नहीं न? क्यों? ज्ञान की रुचि ही नहीं है। अज्ञान में ही मजा आ गया है। सदाचार से प्रेम रखो :
मैंने आप लोगों को कई बार कहा है कि आपके जीवन में जो पाप आप नहीं करते हैं, जैसे-मांसाहार करना, शराब पीना, जुआ खेलना, शिकार करना...वगैरह, इन पापों का त्याग प्रतिज्ञापूर्वक कर लो। क्या ले ली प्रतिज्ञा आप लोगों ने? क्यों नहीं ली? चूंकि दुराचारों से प्रेम है, सदाचारों से प्रेम नहीं है। अरे, जो पाप आप करते ही नहीं, उन पापों का त्याग करने में आपको कौन-सी तकलीफ हो जाती है?
हाँ, यदि कोई ज्ञान देनेवाला नहीं मिला हो, तो दूसरी बात थी। ज्ञान देने वाले मिलने पर भी ज्ञान पाने की इच्छा भी नहीं जगे...तो क्या समझना चाहिए? पापों को समझानेवाले नहीं मिले हों और दुराचारों में फँसे हों, तो दूसरी बात थी, परन्तु दुराचारों को समझने पर भी दुराचारों का प्रेम बना रहे, तो क्या समझना चाहिए? सदाचारों को जानने पर भी सदाचारों का प्रेम नहीं जगे, तो क्या समझना चाहिए? __व्रतधारी और ज्ञानसमृद्ध महापुरुषों की सच्ची सेवा तभी हो सकेगी, जब व्रत और ज्ञान के प्रति अनुराग होगा। ऐसे महापुरुषों की सेवा करने से जो लाभ प्राप्त होते हैं, उन लाभों को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होगी। व्रतधारी ज्ञानी पुरुषों की सेवा से क्या प्राप्त होता है, जानते हो?
उपदेश: शुभो नित्यं, दर्शनं धर्मचारिणाम्।
स्थाने विनय इत्येतत् साधुसेवाफलं महत् ।। ० शुभ-कल्याणकारी उपदेश सुनने को मिलता है, ० धर्ममय जीवन जीनेवालों का दर्शन मिलता है,
० साधु पुरुषों का विनय करने को मिलता है। आपको क्या चाहिए सेवा कर के? ___ कहिए, ये फल किनको चाहिए? जिनको चाहिए, वे तो आते ही हैं। इन फलों का मूल्यांकन जो कर सकें, वह तो साधुसेवा करेगा ही। ऐसी निर्मल
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