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प्रवचन-७६
____३८ साध्वीजी पर इल्जाम आया :
सेठानी ने साध्वीजी पर हार की चोरी का आरोप लगा दिया । घर के लोगों में और बाद में नगर में बात फैल गई। साध्वीजी स्तब्ध-सी हो गई। 'मेरी निकट की श्राविका ने ही मेरे पर आरोप लगाया? लेकिन दोष उसका नहीं है, मेरा है। मैं निर्दोष हूँ। भविष्य में मेरी निर्दोषता सिद्ध होगी। परन्तु एक बार तो मैं कलंकित बन गई...चूँकि मैंने मेरे पूर्वजन्म में किसी निर्दोष व्यक्ति पर कलंक लगाया होगा, पापकर्म बाँधा होगा, वह पापकर्म इस भव में उदय में आया...।' ___ 'दूसरी बात, गृहस्थों के साथ अति परिचय नहीं करने की जिनाज्ञा है, मैंने उस आज्ञा का खंडन कर...सेठानी के साथ अति परिचय किया । मेरी कितनी बड़ी गलती हुई? यदि अति परिचय नहीं होता तो मैं सेठानी के घर में खड़ी नहीं रहती। भिक्षा लेकर निकल जाती घर से...। मैं वहाँ खड़ी रही और यह घटना हुई । अब मैं गृहस्थ-वर्ग के साथ परिचय नहीं रखूगी।'
साध्वीजी थी न, इसलिए आत्मनिरीक्षण किया। सेठानी के साथ झगड़ा नहीं किया। सेठानी के प्रति रोष भी नहीं किया। परन्तु सेठानी तो अज्ञानी थी। उसने सही चिन्तन नहीं किया। उसने तो दुनिया के चश्मे से ही देखा । 'सोना...हीरे...वगैरह ऐसी वस्तुएँ हैं कि जिसको देखकर मुनि भी विचलित हो जाते हैं। साध्वीजी का मन भी मेरा हार देखकर विचलित हो गया होगा और हार उठा लिया होगा। मैंने साध्वीजी को ऐसी नहीं मानी थी...मैं तो साध्वीजी को बहुत अच्छी ज्ञानी और तपस्विनी मानती थी। क्या पता उसका मन मैला होगा? अब मैं उसका मुँह भी नहीं देखूगी...।'
सेठानी ने एक बात का विचार नहीं किया : 'यह साध्वीजी पूर्वावस्था में राजकुमारी थी। राजकुमारी के पास मुझसे भी ज्यादा अलंकार होंगे...। उसने राजवैभव का त्याग स्वेच्छा से किया था। वह मेरे हार को देखकर कैसे ललचा सकती है? और, वह झूठ भी नहीं बोल सकती। मैंने कभी भी उसको झूठ बोलते नहीं सुना है। महाव्रतों का अच्छा पालन करती है। वह चोरी कभी नहीं कर सकती...।'
ऐसे विचार सेठानी नहीं कर सकी। अति परिचय ने साध्वीजी की अवज्ञाअपमान कराया ही।
बाद में जब उस व्यंतर-देव ने, सेठानी के देखते हुए मयूर के चित्र में प्रवेश किया और हार जहाँ से उठाया था वहाँ रख दिया...तब सेठानी हड़बड़ा
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