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प्रवचन-७५ FO जिनके साथ हमें जीना है, जिन्दगी के सफर में जो हमारे
संगी-साथी हैं...उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए। उनको दुःखी करके हम सुख या शांति की अनुभूति नहीं कर सकते। ० यदि अपने पुरखों ने कुछ अनुचित परंपराएँ डाल दी हैं तो हमें ऐसी लोकविरुद्ध, समाजविरुद्ध एवं धर्म को प्रतिकूल
मान्यताओं को छोड़ने का साहस दिखाना चाहिए। ० राग-द्वेष से बचना हो, मन को पल-पल की
मुक्त रखना हो तो 'कर्म फिलोसोफी' को आत्मसात् कर लो। कर्मों की कारीगरी जानने के बाद हम व्यक्तिगत राग-द्वेष से
काफी हद तक बच जायेंगे। ० हर बात का सामना नहीं किया जाता। कहीं पर समझौता भी
करना होता है...औरों को समझाने के बजाय स्वयं को भी
समझाना पड़ता है! ० आप औरों की बुराई नहीं करें... लोग भी आपकी बुराई
करना छोड देंगे, आज नहीं तो कल!
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प्रवचन : ७५
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए, बाईसवाँ सामान्य धर्म बताते हैं यथोचित लोकयात्रा का।
लोगों के विचारों की अवगणना नहीं करने का उपदेश आचार्यदेव देते हैं। लोकचित्त की विराधना करने की मनाही करते हैं | उचित लोकयात्रा का यदि आप अतिक्रमण करेंगे तो लोकचित्त की विराधना ही होगी। लोग आप से विरुद्ध हो जायेंगे। विरुद्ध बने लोग आपकी निन्दा करेंगे, आपका तिरस्कार करेंगे, आपको नुकसान पहुँचायेंगे। साथ साथ आपके सदाचारों की भी निन्दा करेंगे। लोकयात्रा के अतिक्रमण से यह सब होता है, इसलिए दोषित आप ही बनेंगे। आप यदि उचित लोकयात्रा का पालन करते रहें तो लोग आपका और आपके सदाचारों का गौरव बनाये रखेंगे।
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