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प्रवचन- ७४
१८
कारावास में रहा हुआ देद सोचता है : राजा इतना ज्यादा रोषायमान हुआ है कि मेरी सारी संपत्ति ले लेगा । धन-धान्य और सुवर्ण तो ले लेगा, परिवार को और मुझे नष्ट कर देगा
देद के मन में चिन्ता होती है । परन्तु वह परमात्मा के प्रति अपूर्व श्रद्धावान् श्रावक था। उस काल में भगवान् स्तंभन पार्श्वनाथ की अद्भुत महिमा फैली हुई थी । देदाशाह स्तंभन पार्श्वनाथ के परम भक्त थे। उनके मन में स्तंभन पार्श्वनाथ भगवंत की स्मृति हो आयी । उनका चित्त प्रफुल्लित हो गया । चिन्ता के बादल बिखर गये । देदाशाह ने प्रार्थना की।
परमात्मा की आराधना :
‘इहभव और परभव में मोक्ष के कारणभूत श्री स्तंभन पार्श्वनाथ की मैं शरण स्वीकार करता हूँ।'
हे पार्श्वनाथ प्रभो! आपका नाम, मूर्ति का पाषाण, स्नात्र का पानी और पूजन के पुष्प... सभी पदार्थ आपको पाकर वांछित देनेवाले बनते हैं । आपके स्पर्श से वे सभी वस्तुएँ प्रभावशाली बन जाती हैं । आपकी महिमा अपरंपार है । किन शब्दों में मैं आपकी स्तवना करूँ ?
'हे प्रभो मैने राजा को स्वर्णसिद्धि का रहस्य नहीं बताने की जो जिद्द की है वो आपके ही बल से की है। संसार के उत्पीड़ित जीवों का आप ही आश्रय हैं। आपको भावपूर्ण प्रणाम करनेवालों को आप भोगसुख और मोक्षसुख देनेवाले हो। हे स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभो। आपकी कृपा से यदि मैं किसी भी प्रकार का धनव्यय किये बिना यहाँ से...इस विकट कारावास से मुक्त होऊँगा तो आपके चरणों में आकर, आपके सभी अंगों की स्वर्ण के आभूषणों से पूजा करूँगा ।'
देद श्रावक की यह भावना, श्रीमद रत्नमंडन गणी ने 'सुकृतसागर' नाम के ग्रन्थ में बतायी है। उन्होंने एक-एक बात महत्त्वपूर्ण बताया है । संक्षेप में इन बातों का मैं पर्यालोचन करूँगा। हालाँकि प्रस्तुत विषय से (यथोचित लोकयात्रा) कुछ दूर जा रहे हैं, परन्तु प्रासंगिक विषय की चर्चा करना आवश्यक है । हर मनुष्य को जीवन में ये बातें उपयोगी हैं।
कष्ट और संकट हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं। जिस मनुष्य के पास श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा नहीं होती है वह मनुष्य कष्टों के पहाड़ के नीचे दब जाता है। संकटों के विषधर उसको डस लेते हैं । निराशाओं में वह घिर जाता है और प्राणों को भी गँवा देता है ।
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