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प्रवचन-९४
२२२ ० सामायिक की क्रिया करते हैं; परंतु प्रचंड क्रोध करते हैं, गंदे शब्द बोलते हैं, आक्रोश करते हैं।
० प्रतिक्रमण की क्रिया करते हैं, यानी विशेष धर्म का पालन करते हैं; परंतु झूठ, चोरी, दुराचार जैसे पापों का सेवन मजे से करते हैं, परनिन्दा, स्वप्रशंसा करते रहते हैं।
० साधुपुरुषों की सेवा करते हैं; परन्तु दुर्जनों का संग करते हैं, सज्जनों की उपेक्षा करते हैं।
० तीर्थों की यात्रा करते हैं; परंतु अन्याय से, प्रपंच से, चोरी से धन कमाते रहते हैं।
० पौषध व्रत करते हैं; परंतु दुःखी जीवों के प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करते हैं, शिष्ट पुरुषों की निन्दा करते हैं।
० रोजाना श्री नवकार मंत्र की मालाएँ फेरते हैं; परन्तु रहते हैं विधर्मियों के पास में, कर्मादान के धंधे करते हैं।
० उपवास, आयंबिल वगैरह तपश्चर्या करते हैं; परन्तु जब खाते हैं तब भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं, अति भोजन करते हैं, अजीर्ण होने पर भी खाते रहते हैं।
इससे निंदनीय सुखों की प्राप्ति होती है। सामान्य धर्मों की घोर उपेक्षा करने से, इस वर्तमान जीवन में भी मनुष्य प्रशंसापात्र या लोकप्रिय नहीं बन पाता है। मृत्यु के बाद भी, जहाँ जन्म लेगा वहाँ वह निंदनीय सुख ही प्राप्त करेगा। ___ सभा में से : सामान्य धर्मों की इतनी घोर उपेक्षा, आज संघ में, समाज में क्यों हो गई है?
महाराजश्री : इसका कोई एक कारण नहीं है, अनेक कारण हैं। कुछ कारण बताता हूँ : सामान्य धर्म की उपेक्षा के कारण :
१. सामान्य धर्मों के पालन का उपदेश देना, साधुपुरुषों ने कम कर दिया है। विशेष धर्मों के पालन का उपदेश विशेष रूप से दिया जाता है। विशेष धर्म करनेवाले यदि सामान्य धर्मों का पालन नहीं करते हैं तो भी उनको सम्मान मिल जाता है।
२. सामान्य धर्मों का पालन नहीं होता है फिर भी 'हम धर्महीन हैं,' ऐसा भाव पैदा नहीं होता है। गलती नहीं लगती है।
३. सामान्य धर्मों के पालन से होनेवाले लाभ और पालन नहीं करने से होनेवाले नुकसानों का ज्ञान नहीं है।
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