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प्रवचन-९३
२११ ऐसे लोग कभी भी निपुण बुद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । ग्रंथकार आचार्यदेव तो कहते हैं - 'भव्वाण णिउण बुद्धि जायति' जो जीव 'भव्य' होते हैं यानी निकट के भविष्य में जिनकी मुक्ति होनेवाली है (आसन्नभव्य) ऐसे जीवों को ही निपुण बुद्धि प्राप्त होती है। चूंकि ऐसे जीव राग-द्वेष वगैरह दोषों की प्रबलता से मुक्त होते हैं। राग-द्वेष की प्रबलता से मुक्त मनुष्य ही धर्मश्रवण-तत्त्वश्रवण करने योग्य होता है। ऐसा मनुष्य ही बुद्धिनिधान सत्पुरुषों के समागम को सार्थक करता है। सत्पुरुषों की ऐसा मनुष्य ही भक्ति करेगा, बहुमान करेगा और ईर्ष्यारहित प्रशंसा करेगा। __एक बात निश्चित समझना कि अभव्य जीवों को कभी भी निपुण बुद्धि प्राप्त नहीं होगी। यानी मोक्षमार्ग की आराधना में अनुकूल बुद्धि उनको नहीं मिलेगी। कभी भव्य जीवों की ऐसी हालत होती हैं। तीव्र राग-द्वेष की परिणतिवाले भव्य जीव भी निपुण बुद्धिवाले नहीं हो सकते। इसका अर्थ यही होता है कि प्रज्ञा का प्रकर्ष पाने के लिए राग-द्वेष की मंदता होना अनिवार्य है।
बुद्धिमान् सत्पुरुषों का, जो कि जीव मात्र के कल्याणमित्र होते हैं, समग्र जीवसृष्टि के प्रति मैत्रीभावना रखने वाले होते हैं; उनके संपर्क से, उनके संबंध से राग-द्वेष की परिणति कम होती है। उनके संपर्क से ही बुद्धिमानों की भक्ति, उनके प्रति बहुमान और उनकी प्रशंसा करने की प्रेरणा मिलती है। यह सब करने से बुद्धि का नैपुण्य बढ़ता जाता है। धर्म के विषय में, अर्थ और काम के विषय में इच्छित फल प्राप्त कराने वाली बुद्धि प्राप्त होती है। सभी कार्यों में उसकी बुद्धि का चमत्कार लोगों को देखने को मिलता है। कैसी भी समस्या पैदा हुई हो, वह सुलझा देगा। मात्र वर्तमान जीवन की सुख-शान्ति के लिए ही नहीं, पारलौकिक जीवन के लिये भी वह अपनी बुद्धि का उपयोग करेगा।
विनय से प्राप्त होने वाली बुद्धि तीन प्रकार का नैपुण्य धारण करती है। विनीत ऐसा बुद्धिमान् व्यक्ति
१. अति दुष्कर कार्य भी सिद्ध करता है, २. धर्म-अर्थ और काम - तीनों पुरुषार्थ में दक्ष होता है,
३. वर्तमान जीवन और पारलौकिक जीवन, दोनों जीवन को सफल बनाता है।
विनीत शिष्य को शास्त्र के अर्थ सही रूप में स्फुरायमान होते हैं। अविनीत-जड़ बुद्धिवाले शिष्य को शास्त्र के अर्थ सही रूप में ज्ञात नहीं होते।
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