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प्रवचन-९१
१९३ 'गुरुदेव, मैं आपकी बातें ग्रहण करता हूँ | दृढ़ता से प्रतिज्ञाओं का पालन करूँगा।' उसने प्रतिज्ञायें ग्रहण की। आचार्यदेव को विदा कर के वह वापस घर पहुंचा।
बुद्धि की तीन भूमिका वंकचूल में देखी जाती हैं। सुश्रूषा, श्रवण और ग्रहण | उसमें सुनने की इच्छा पैदा हुई, उसने उपदेश सुना और उपदेश की बातें ग्रहण की।
सभा में से : आचार्यदेव ने बहुत धैर्य रखा और बहुत सोच-विचार कर प्रतिज्ञायें दीं! आचार्य भगवंत दीर्घदृष्टा होते हैं :
महाराजश्री : यही तो गीतार्थ आचार्यों की विशेषता होती है। वे दीर्घदृष्टिवाले होते हैं। समय को जाननेवाले होते हैं। जिस समय वंकचूल ने कहा था : 'आप हमारे गाँव में रह सकते हो, परंतु धर्म-उपदेश नहीं दे सकते हो।' उस समय यदि आचार्य उपदेश देने लगते कि 'धर्म का उपदेश तो सुनना चाहिए, इससे आत्मा का ज्ञान होता है, मोक्षमार्ग का ज्ञान होता है, पाप और पुण्य का ज्ञान होता है। तुम लोगों को अनायास लाभ मिल गया है तो उपदेश तो सुनना ही चाहिए।' ऐसी बात करते तो क्या होता? उस गाँव में रह नहीं सकते और भयंकर जंगल में भटकना पड़ता। चूंकि वे तो डाकू थे। उनको आत्मा-परमात्मा से या पुण्य-पाप से कोई मतलब नहीं था। दूसरी बात होती है गरज की! गरज डाकुओं को साधुओं की नहीं थी, साधुओं को डाकुओं की थी। जिसकी गरज हमें हो, उसकी शर्त हमें माननी चाहिए। आचार्य प्रज्ञावंत थे, उन्होंने वंकचूल की शर्त मान ली! और शर्त का पालन किया । जब तक उस गाँव में रहे! गाँव छोड़कर दूर गये, बाद में ही उन्होंने धर्म का उपदेश दिया। वह भी वंकचूल में श्रवण की इच्छा पैदा करके!
जब तक श्रवण करने की इच्छा मनुष्य में पैदा न हुई हो तब तक उपदेश नहीं देना चाहिए। बिना इच्छा, मात्र व्यवहार से व्याख्यान-सभा में आकर बैठनेवाले क्या उपदेश सुनते हैं? जरा भी नहीं। नींद लेंगे या दूसरे विचार करते रहेंगे।
अब तो प्रवचन भी रूढ़ि हो गया है : कभी-कभी अपरिचित गाँवों में ऐसा अनुभव होता है। 'साधु-मुनिराज गाँव
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