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प्रवचन-८७
१४९ हत्या भी इसी कारण नहीं हुई क्या? तेरे पापों की यह सजा है - ऐसा समझ ले और चोरी-डाका, हत्या वगैरह पापों का त्याग कर दे।
नरवीर, वैर से वेर बढ़ता है। वैर बढ़ने से अशान्ति, क्लेश और संताप बढ़ता है। क्या यह मानवजीवन ऐसे जीना है? तेरी अन्तरात्मा को पूछ... संतोष है ऐसे जीवन से? वत्स, मेरा कहा मान और अब नया जीवन प्रारम्भ कर| जो पाप किये हैं उनका पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त कर। तुझे शान्ति मिलेगी, समता मिलेगी और प्रसन्नता से शेष जीवन व्यतीत होगा।'
नरवीर एकाग्र मन से आचार्यदेव का उपदेश सुनता रहा। उसके हृदय में ज्ञान का दीपक प्रकट हुआ | उसकी आँखें बरसने लगीं। वह गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा। 'गुरुदेव, आपने मेरे जैसे घोर पापी का उद्धार किया... आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं डाका नहीं डालूँगा, किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा। परिश्रम करके आजीविका कमाऊँगा और धर्ममय जीवन व्यतीत करूँगा.... | परन्तु गुरुदेव, मैं कहाँ जाऊँ? मेरे जैसे पापी को कौन आश्रय देगा? मेरा नाम सुनकर लोग मुझे पत्थर मारेंगे...।'
आचार्यदेव ने नरवीर को भरसक आश्वासन दिया और आढर श्रेष्ठि के पास भेज दिया | नरवीर का वहाँ नया जीवन शुरू हुआ और आढर श्रेष्ठि के सहवास से वह परमात्मभक्त बना। आप जानते होंगे कि यह नरवीर ही दूसरे जन्म में कुमारपाल बना, जो कि बारहवीं शताब्दी में गुजरात का राजा बना था। कुमारपाल के जीवन में भी अचानक ही उसको सद्गुरु का संयोग मिल गया था। श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी जैसे कलिकालसर्वज्ञ गुरु का संयोग मिलना... महान् पुण्योदय था राजा का। सत्संग बड़ा कीमती होता है :
सद्गुरु का अचानक संयोग मिलता है, वह पुण्यकर्म के उदय से ही मिलता है। पूर्वजन्मों में जानते-अनजानते साधु-संतों के प्रति आदर, सद्भाव... प्रेम किया हुआ हो, तो वर्तमान जन्म में बिना प्रयत्न सद्गुरु का संयोग मिल सकता है। वैसे वर्तमान जीवन में अथवा आनेवाले भवों में सद्गुरु का संयोग अवश्य मिलेगा।
साधु-संतों के प्रति निष्काम भावना से भक्तिभाव रखने का है। कुछ भी भौतिक कामनाएँ नहीं होनी चाहिए | साधु-संतों के गुणों से एवं उनके निष्पाप जीवन से उनके प्रति प्रीति होनी चाहिए।
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