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प्रवचन-८५
१३० कितना भी गहरा होगा, परन्तु यदि वह प्रियभाषी नहीं होगा तो व्याख्यान सभा का हृदय नहीं जीत पायेगा। और यदि लोगों का हृदय नहीं जीता तो उनमें धर्म का प्रचार नहीं किया जा सकेगा। ___ सभा में से : आजकल तो कई धर्मोपदेशक बहुत कटु शब्दों का प्रयोग करते हैं...
महाराजश्री : इसका परिणाम भी वे देखते होंगे! वे समझते होंगे कि हम 'स्पष्ट वक्ता' हैं । परन्तु स्पष्टवादिता कटु शब्दों में ही अभिव्यक्त नहीं होती है। मधुर शब्दों में भी स्पष्टवादिता अभिव्यक्त हो सकती है। धर्मोपदेशक यदि साधु-मुनि है, तो वह पूज्य होता है। पूज्य के प्रति पूज्यता का भाव तभी अखंडित रहता है, यदि वह प्रियभाषी है। अप्रियभाषी के प्रति पूज्यभाव खंडित हो जाता है, और वह बड़ा नुकसान है।
४. चौथी बात है, अवसर को, प्रसंग को जानने की। अवसर शोक के होते हैं, अवसर हर्ष के होते हैं। अवसर शान्ति के होते हैं, अवसर विवाद के होते हैं। अवसर स्वधर्म का होता है, अवसर अन्य धर्म का होता है। अवसर धर्मरक्षा का होता है, अवसर धर्म-प्रभावना का होता है। अवसरोचित वक्तव्य देने का होता है। अवसर को समझे बिना जो उपदेश दिया जाता है; इससे क्लेष, संघर्ष एवं मनमुटाव पैदा होते हैं। अवसरोचित धर्मोपदेश देकर लोगों के हृदय में धर्मभावनाएँ, सद्भावनाएँ जाग्रत करनी चाहिए। लोगों के हृदय में राग-द्वेष की परिणति कम हो - इस दृष्टि से उपदेश देने का है।
५. पाँचवी बात है सत्यवादिता की। झूठ-असत्य से धर्मोपदेशक को दूर रहना चाहिए | धर्मग्रन्थों को सापेक्ष रहते हुए उपदेश देना चाहिए | धर्मग्रन्थों का अर्थ भी सही करना चाहिए। जिस संदर्भ में जिस शब्द का जो अर्थ होता हो वही अर्थ करना चाहिए । 'अज' शब्द का अर्थ बकरा भी होता है और 'तीन वर्ष पुराना अनाज' ऐसा भी होता है। 'अजैर्यष्टव्यम्' का अर्थ बकरों से यज्ञ करना, ऐसा किया गया और हिंसक यज्ञों का प्रारंभ हो गया। कितना घोर अनर्थ हुआ? शास्त्रों का अर्थ करनेवाले निष्पक्ष, निष्कामी और संदर्भ के ज्ञाता विद्वान् चाहिए।
६. धर्मोपदेशक ऐसा होना चाहिए कि श्रोताओं के संदेहों को दूर करे। श्रोताओं की धर्म-विषयक जिज्ञासाओं को संतोष दे। श्रोताओं के मन में कैसे कैसे संदेह पैदा हो सकते हैं, उसका अनुमान लगाकर, व्याख्यान में वह स्वयं प्रश्न पैदा कर समाधान करता रहे! समाधान जो भी करे वह तर्कयुक्त होना चाहिए और धर्मग्रन्थ-सम्मत होना चाहिए।
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