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प्रवचन-८२
१०३ शिक्षक की आँखें हर्ष के आँसू से भर गईं। उन्होंने लालाजी को छाती से लगा लिया।
संसार में कुछ लोग पैशाची प्रकृति के भी होते हैं। वे जिनके प्रति शत्रुता रखते हैं, उनका नाश करने के लिए मित्र बन जाते हैं। मित्र के रूप में रहते हुए वे शत्रुता का काम करते हैं। ऐसे लोगों का सही रूप जानना मुश्किल होता है। फिर भी जाग्रत और बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसे लोगों से बच भी सकते हैं।
जो कार्य करना है, उस कार्य के लिए क्षेत्र-गाँव-नगर उपयुक्त है या नहींयह सोचना चाहिए। धर्म, अर्थ और काम - तीनों पुरुषार्थ की द्रष्टि से सोचना चाहिए। ऐसा गाँव-नगर हो कि जहाँ रुपये तो बहुत मिलते हैं, परन्तु धर्मआराधना नहीं हो सकती है और परिवार भी साथ नहीं रह सकता है, तो वह योग्य क्षेत्र नहीं है। ऐसा गाँव-नगर हो कि जहाँ परिवार साथ रह सकता है और धर्म-आराधना भी हो सकती है, परंतु धन प्राप्ति नहीं हो सकती है - तो वह योग्य क्षेत्र नहीं है। हाँ, मात्र अर्थप्राप्ति के प्रयोजन से ही क्षेत्र पसन्द करना है, वहाँ उस दृष्टि से ही सोचना चाहिए | धर्माराधना का पुरुषार्थ करना है तो उस दृष्टि से सोचना चाहिए। जिस कार्य का लक्ष्य हो, उस कार्य की सफलता की दृष्टि से सोचना चाहिए। क्षेत्र की पसन्दगी यदि सही नहीं की, तो कार्य की सफलता संदिग्ध बन सकती है। इसलिए क्षेत्र की पसन्दगी के विषय में भी सोचना आवश्यक है। कब क्या करना है? सोचो!
काल-समय का विचार भी गंभीरता से करना चाहिए। किस समय कौनसा कार्य करना चाहिए, इस विषय की आंतर सूझ-बूझ होनी चाहिए। किस समय धर्म-आराधना करनी चाहिए, किस समय अर्थप्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए और किस समय कामपुरुषार्थ करना चाहिए - इस बात का ज्ञान होना चाहिए। समय का महत्त्व समझें। प्रवचन सुनने के समय दुकान पर जा कर बैठो और दुकान पर बैठने के समय सिनेमा देखने चले जाओ...तो क्या होगा? धर्महानि और अर्थहानि ही होनेवाली है। साहस में श्री है!
अब रही भाव की बात | भाव चाहिए उत्साह का, साहस का । यदि हृदय में उत्साह नहीं होगा, साहस नहीं होगा, तो अनुकूल द्रव्य क्षेत्र और काल का लाभ नहीं उठा पाओगे।
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