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प्रवचन-८२ आचार्यश्री ने कहा कि पहले यह विचार करो कि 'मैं कौन हूँ?' अपने आपको निर्बल मत मानो । अपनी शक्ति का मूल्य बराबर समझो। आप असीम क्षमताओं के भंडार हो। आप असंभव को भी संभव बनाने की क्षमता रखते हो। आपकी विकसित प्रतिभा ही अपने विकसित रूप में देव-दानव की भूमिका संपन्न करती है। यह बात मत भूलो कि सफलताएँ संकल्पभरे प्रयासों के चरण चूमती हैं। अनगढ़ मनुष्य ही पिछड़ा, पतित, दरिद्र और विपन्न दिखता है।
संकल्प और प्रयत्न का भावभरा समन्वय, कितने स्वप्नकाल में, कितनी उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकता है, इस तथ्य की एक हलकी-सी झाँकी सौ वर्षों की वैज्ञानिक सफलताओं को देखते हुए हर किसी को हो सकती है। यदि इसी प्रकार का प्रयास धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थ में किया जाय, मानसिक और आध्यात्मिक विपन्नताओं को निरस्त करने के लिए किया जाय, कर्मबंधनों को तोड़ने में किया जाय तो कोई कारण नहीं कि आत्म-कल्याण का लक्ष्य संपन्न न हो सके।
मानवजीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य तो आत्म-कल्याण ही है। आत्म-कल्याण कहो या आत्मविशुद्धि कहो-धर्मपुरुषार्थ से ही संभव है। परन्तु 'आत्मा' किसको याद आती है? धरती से अन्तरिक्ष में छलांग लगाकर उन्मुक्त आकाश में स्वच्छंद विचरण करनेवाला मनुष्य अपनी ही आत्मसत्ता को भूल गया है। अपने स्वरूप
और सामर्थ्य का यथार्थ ज्ञान नहीं होने से संसार में भटक रहा है। ___ शरीरविज्ञान, भौतिकविज्ञान, जीवविज्ञान, मनोविज्ञान...जैसी विविध ज्ञानधाराओं का जो ज्ञान मनुष्य को प्राप्त हुआ है वह तो अति अल्प है। उससे आत्मसत्ता की सर्वांगसंपूर्ण व्याख्या नहीं की जा सकती है। शरीर, मन और बुद्धि से ऊपर जो सत्ता है, वह आत्मा है। परन्तु बड़ी दुःख की बात है कि भौतिक जगत के प्रति सजग होते हुए भी मनुष्य आज आत्म-विस्मृति के भयंकर युग से गुजर रहा है। आत्मा को मत भूलें :
आत्म-विस्मृति का यह परिणाम है कि मनुष्य घोर हिंसा की ओर अग्रसर होता जा रहा है। दूसरों को गिराने एवं मारने में ही मनुष्य अपनी दुर्बुद्धि का परिचय दे रहा है। साधन-सुविधाओं का अंबार होते हुए भी मनुष्य की आन्तरिक दरिद्रता, दुःख, अशान्ति एवं असंतोष की मात्रा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
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